Wednesday, August 17, 2011

मिशन, प्रोफेशन और कमर्शियलाइजेशन...



‘‘एक समय आएगा, जब हिंदी पत्र रोटरी पर छपेंगे, संपादकों को ऊंची तनख्वाहें मिलेंगी, सब कुछ होगा किन्तु उनकी आत्मा मर जाएगी, सम्पादक, सम्पादक न होकर मालिक का नौकर होगा।’’

स्वतंत्रता आंदोलन को अपनी कलम के माध्यम से तेज करने वाले बाबूराव विष्णु पराड़कर जी ने यह बात कही थी। उस समय उन्होंने शायद पत्रकारिता के भविष्य को भांप लिया था। पत्रकारिता की शुरूआत मिशन से हुई थी जो आजादी के बाद धीरे-धीरे प्रोफेशन बन गया और अब इसमें कमर्शियलाइजेशन का दौर चल रहा है।

स्वतंत्रता आंदोलन को सफल करने में पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उस समय पत्रकारिता को मिशन के तौर पर लिया जाता था और पत्रकारिता के माध्यम से निःस्वार्थ भाव से सेवा की जाती थी। भारत में पत्रकारिता की नींव रखने वाले अंग्रेज ही थे। भारत में सबसे पहला समाचार पत्र जेम्स अगस्टस हिक्की ने वर्ष 1780 में बंगाल गजटनिकाला। अंग्रेज होते हुए भी उन्होंने अपने पत्र के माध्यम से अंग्रेजी शासन की आलोचना की, जिससे परेशान गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने उन्हें प्रदत्त डाक सेवाएं बंद कर दी और उनके पत्र प्रकाशन के अधिकार समाप्त कर दिए। उन्हें जेल में डाल दिया गया और जुर्माना लगाया गया। जेल में रहकर भी उन्होंने अपने कलम की पैनी धार को कम नहीं किया और वहीं से लिखते रहंे। हिक्की ने अपना उद्देश्य घोषित किया था- अपने मन और आत्मा की स्वतंत्रता के लिए अपने शरीर को बंधन में डालने में मुझे मजा आता है।

हिक्की गजट द्वारा किए गए प्रयास के बाद भारत में कई समाचार पत्र आए जिनमें ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाजें उठने लगी थी। समाचार पत्रों की आवाज दबाने के लिए समय-समय पर प्रेस सेंसरशिप व अधिनियम लगाए गए लेकिन इसके बावजूद भी पत्रकारिता के उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं आया। भारत में सर्वप्रथम वर्ष 1816 में गंगाधर भट्टाचार्य ने बंगाल गजट का प्रकाशन किया। इसके बाद कई दैनिक, साप्ताहिक व मासिक पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जिन्होंने ब्रिटिश अत्याचारों की जमकर भर्त्सना की।

राजा राम मोहन राय ने पत्रकारिता द्वारा सामाजिक पुनर्जागरण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। ब्राह्मैनिकल मैगजीनके माध्यम से उन्होंने ईसाई मिशनरियों के साम्प्रदायिक षड्यंत्र का विरोध किया तो संवाद कौमुदीद्वारा उन्होंने महिलाओं की स्थिति में सुधार करने का प्रयास किया। मीरात-उल-अखबारके तेजस्वी होने के कारण इसे अंग्रेज शासकों की कुदृष्टि का शिकार होना पड़ा।

जेम्स बकिंघम ने वर्ष 1818 में कलकत्ता क्रोनिकलका संपादन करते हुए अंग्रेजी शासन की कड़ी आलोचना की, जिससे घबराकर अंग्रेजों ने उन्हें देश निकाला दे दिया। इंग्लैंड जाकर भी उन्होंने आरियेंटल हेराल्डपत्र में भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों को उजागर किया।

हिन्दी भाषा में प्रथम समाचार पत्र लाने का श्रेय पं. जुगल किशोर को जाता है। उन्होंने 1826 में उदन्त मार्तण्डपत्र निकाला और अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों की आलोचना की। उन्हें अंग्रेजों ने प्रलोभन देने की भी कोशिश की लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया और आर्थिक समस्याओं से जूझते हुए भी पत्रकारिता के माध्यम से राष्ट्रवाद की मशाल को और तीव्र किया।

1857 की विद्रोह की खबरें दबाने के लिए गैगिंग एक्टलागू किया। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन के नेता अजीमुल्ला खां ने दिल्ली से पयामे आजादीनिकाला जिसने ब्रिटिश कुशासन की जमकर आलोचना की। ब्रिटिश सरकार ने इस पत्र को बंद करने का भरसक प्रयास किया और इस अखबार की प्रति किसी के पास पाए जाने पर उसे कठोर यातनाएं दी जाती थी। इसके बाद इण्डियन घोष’, ‘द हिन्दू’, ‘पायनियर’, ‘अमृत बाजार पत्रिका’, ‘द ट्रिब्यूनजैसे कई समाचार पत्र सामने आए।

लोकमान्य तिलक ने पत्रकारिता के माध्यम से उग्र राष्ट्रवाद की स्थापना की। उनके समाचार पत्र मराठाऔर केसरीउग्र प्रवृत्ति का जीता जागता उदाहरण है। गांधीजी ने पत्रकारिता के माध्यम से पूरे समाज को एकजुट करने का कार्य किया और स्वाधीनता संग्राम की दिशा सुनिश्चित की। नवभारत’, ‘नवजीवन’, ‘हरिजन’, ‘हरिजन सेवक’, ‘हरिजन बंधु’, ‘यंग इंडियाआदि समाचार पत्र गांधी जी के विचारों के संवाहक थे। गांधी जी राजनीति के अलावा अन्य विषयों पर भी लिखते थे। उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों को भी उजागर कर इसे समाप्त करने पर बल दिया। गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर से प्रतापनामक पत्र निकाला जो अंग्रेजी सरकार का घोर विरोधी बन गया। अरविंद घोष ने वंदे मातरम‘, ‘युगांतर’, ‘कर्मयोगीऔर धर्मआदि का सम्पादन किया। बाबू राव विष्णु पराड़कर ने वर्ष 1920 में आजका संपादन किया जिसका उद्देश्य आजादी प्राप्त करना था।

आजादी से पहले पत्रकारिता को मिशन माना जाता था और भारत के पत्रकारों ने अपनी कलम की ताकत आजादी प्राप्त करने में लगाई। आजादी मिलने के बाद समाचार पत्रों के स्वरूप में परिवर्तन आना स्वाभाविक था क्योंकि उनका आजादी का उद्देश्य पूरा हो चुका था। समाचार-पत्रों को आजादी मिलने और साक्षरता दर बढ़ने के कारण आजादी के बाद बड़ी संख्या में समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा। साथ ही रेडिया एवं टेलीविजन के विकास के कारण मीडिया जगत में बड़ा बदलाव देखा गया। स्वतंत्रता से पहले जिस पत्रकारिता को मिशन माना जाता था अब धीरे-धीरे वह प्रोफेशनमें बदल रही थी।

वर्ष 1947 से लेकर वर्ष 1975 तक पत्रकारिता जगत में विकासात्मक पत्रकारिता का दौर रहा। नए उद्योगों के खुलने और तकनीकी विकास के कारण उस समय समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में भारत के विकास की खबरें प्रमुखता से छपती थी। समाचार-पत्रों में धीरे-धीरे विज्ञापनों की संख्या बढ़ रही थी व इसे रोजगार का साधन माना जाने लगा था।

वर्ष 1975 में एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर काले बादल छा गए, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर मीडिया पर सेंसरशिप ठोक दी। विपक्ष की ओर से भ्रष्टाचार, कमजोर आर्थिक नीति को लेकर उनके खिलाफ उठ रहे सवालों के कारण इंदिरा गांधी ने प्रेस से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली। लगभग 19 महीनों तक चले आपातकाल के दौरान भारतीय मीडिया शिथिल अवस्था में थी। उस समय दो समाचार पत्रों द इंडियन एक्सप्रेसऔर द स्टेट्समेनने उनके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की तो उनकी वित्तीय सहायता रोक दी गई। इंदिरा गांधी ने भारतीय मीडिया की कमजोर नस को अच्छे से पहचान लिया था। उन्होंने मीडिया को अपने पक्ष में करने के लिए उनको दी जाने वाली वित्तीय सहायता में इजाफा कर दिया और प्रेस सेंसरशिप लागू कर दी। उस समय कुछ पत्रकार सरकार की चाटुकारिता में स्वयं के मार्ग से भटक गए और कुछ चाहकर भी सरकार के विरूद्ध स्वतंत्र रूप से अपने विचारों को नहीं प्रकट कर सकें। कुछ पत्रकार ऐसे भी थे जो सत्य के मार्ग पर अडिग रहें। आपातकाल के दौरान समाचार पत्रों में सरकारी प्रेस विज्ञप्तियां ही ज्यादा नजर आती थी। कुछ सम्पादकों ने सेंसरशिप के विरोध में सम्पादकीय खाली छोड़ दिया। लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी एक पुस्तक में कहा है- ‘‘उन्होंने हमें झुकने के लिए कहा और हमने रेंगना शुरू कर दिया।’’

1977 में जब चुनाव हुए तो मोरारजी देसाई की सरकार आई और उन्होंने प्रेस पर लगी सेंसरशिप को हटा दिया। इसके बाद समाचार पत्रों ने आपातकाल के दौरान छिपाई गई बातों को छापा। पत्रकारिता द्वारा आजादी के दौरान किया गया संघर्ष बहुत पीछे छूट चुका था और पत्रकारिता अब पेशे में तब्दील हो चुकी थी।

भारत में एक और ऐसी घटना घटी जिसने पत्रकारिता के स्वरूप को एक बार फिर बदल दिया। वर्ष 1991 की उदारीकरण की नीति और वैश्वीकरण के कारण पत्रकारिता पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा और पत्रकारिता में धीरे-धीरे कमर्शियलाइजेशनका दौर आने लगा। आम जनता को सत्य उजागर कर प्रभावित करने वाले मीडिया पर राजनीति व बाजार का प्रभाव पड़ना शुरू हो गया। पत्रकारों की कलम को बाजार ने प्रभावित कर खरीदना शुरू कर दिया। वर्तमान दौर कमर्शिलाइजेशन का ही दौर है, जिसमें मीडिया के लिए समाचारों से ज्यादा विज्ञापन का महत्व है। बाजार में उपलब्ध उत्पादों का प्रचार समाचार बनाकर किया जा रहा है। आज समाचार का पहला पृष्ठ भी बाजार खरीदने लगा है। वहीं पिछले कुछ दिनों में पत्रकारिता में भ्रष्टाचार के जो मामले सामने आए उसको देखकर पत्रकारिता का उद्देश्य धुंधला होता नजर आता है। 2जी स्पेक्ट्रम मामले में जिस तरह कुछ पत्रकारों की भूमिका सामने आई उसको देखकर अब आम जन का विश्वास भी मीडिया से हट रहा है।

आजादी से पहले पत्रकारों ने किसी भी प्रलोभनों में आए बिना निःस्वार्थ भाव से अपना कर्तव्य निभाया था। अंग्रेजों द्वारा प्रेस पर रोक लगाने के बाद भी उन्होंने अपनी कलम को नहीं रोका, लेकिन आज परिस्थितियां बदलती नजर आ रहीं हैं। पत्रकारिता आज सेवा से आगे बढ़कर व्यवसाय में परिवर्तित हो चुकी है। यहां पर एक बार फिर पराड़कर जी के वही शब्द याद आते हैं जिनमें उन्होंने पत्रकारिता के भविष्य को भांप लिया था- ‘‘एक समय आएगा, जब हिंदी पत्र रोटरी पर छपेंगे, संपादकों को ऊंची तनख्वाहें मिलेंगी, सब कुछ होगा किन्तु उनकी आत्मा मर जाएगी, सम्पादक, सम्पादक न होकर मालिक का नौकर होगा।’’

4 comments:

  1. अच्छा विषय उठाया है आपने... पराड़कर जी की पंक्तियों ने पहले ही भविष्य को आंक लिया था कि आज के दौर में कैसे पत्रकार उभरने वाले हैं.. लेकिन मै बस एक चीज कहना चाहूँगा कि पत्रकार आज भी अपने काम को पहले जैसे ही कर रहे हैं.. विषय वास्तु को खोज रहे हैं, उसकी जांच कर रहे हैं, उसके बाद ही ख़बरों को कागजों पर स्थान दे रहे हैं... बस अंतर ये हैं कि एक खबर किसी के लिए फायदेमंद साबित हो रही है तो दूसरे को बिकी हुई नजर आती है...

    इसलिए पत्रकारिता को गलत ठहराना ही गलत है, पत्रकार के लिए मिशन जैसी कोई चीज भला कैसे रहे, आज इतनी जरूरते हैं लोगो की कि वह समाज सुधारक बनेगा तो उसका घर ही समाज के आईने से ओझल हो जाएगा.... ये दुनिया पूंजीवाद के धरातल पर खड़ी है! जहाँ आपको सोचना है कि लोगो को रौशनी पहुंचाए या फिर अपने घर के चूल्हे में आग जलाये....

    आपके शानदार लेख पर आपको बधाई, पढ़ के मजा आया... लगा कि फिर से स्नातक की कक्षा में बैठा हूँ, और पत्रकारिता के सही मूल्यों को सीखने कि कोशिश में लगा हूँ.... पर फिर वर्तमान के बेईमान थपेड़ों ने मेरे पूर्व के मंत्र-मुग्ध आभास को तोड़ दिया... कि पहले खाने कि सोचो समाज बदलने को बहुत समय मिलेगा....!

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  2. एक जमाने की पत्रकारिता चिलचिलाती धूप,कड़कड़ाती ठंड एवं वर्षा-आँधी के बीच पहुँचकर जानकारी एकत्र कर ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के साथ हमारे समक्ष प्रस्तुत करने को कहा जाता था,ऐसा मैंने किताबों में padha है लेकिन आज की पत्रकारिता वातानुकूलित कक्ष, अंतर-जाल, सूचना-तंत्र, ए. सी. वाहनों और द्रुतगामी वायुयान-हेलिकॉप्टरों से परिपूर्ण व्यवस्था ने ले ली है, लेकिन बावज़ूद इसके लगातार पत्रकारिता के मूल्यों का क्षरण चिंता का विषय है.

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  3. रोमांचक फ्लैशबैक में चला गया था पढ़के। क्लाईमैक्स की कमी खल गयी। क्लाईंमेक्स बड़ा निर्लज्ज है....उसके आइने में सिद्धांत और पैसे का फर्क साफ झलकता रहा है। पत्रकारिता के अतीत को वर्तमान ने सरेआम कुचल दिया है। नेहा जी....पत्रकारिता में ईमानदारी की नसबंदी करके ही आते हैँ। जब पेशा से पैशन जुड़ता है तो मायने बदल जाते हैं। प्रोफेशन में सिद्धांत...मूल्य...आदर्श...और इंसानियत नहीं होता। सिर्फ मुनाफा संप्रभु होता है। जिसके बदौलत रूतबा...शोहरत और बुलंदी मिलती है। अब तो पैसा ही सेंसर है। पैसा ही जज्बा और पैसा ही हिम्मत है। यानी सबकुछ पैसा। वक्त बदली...वक्त की तासीर बदली। मालवीय जी की "छाया”...पराड़कर जी की "बातें”...समझकर गर्व महसूस होता है। लेकिन "वक्त के फ्रेम" में ये गर्व अब "बोझ" बन गया है। सम्पादक किसी " ज्ञानदेव" का नाम नहीं अब एक ऐसा पद बन गया है जिसकी अहमियत पैसे के कद से नीचे रहेगी।

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  4. प्रतिक्रया के लिए आप सभी का धन्यवाद... इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज पत्रकारिता में बाजार का प्रभाव स्वाभाविक है. लेकिन भ्रष्टाचार को उजागर करने के माध्यम मीडिया में भी भ्रष्टाचार की जड़ें मजबूत हो रही है. यहाँ पत्रकारिता की बदलती तस्वीर को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है...

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