Monday, February 7, 2011

अमेरिकी ईशारों पर अरब देशों की सत्ता

ट्यूनीसिया में जन विद्रोह के कारण हुआ सत्ता परिवर्तन अरब देशों के लिए आदर्श बन गया है और मिस्र, यमन, अल्जीरिया, सूडान, जॉर्डन, ओमान और यूएई के लोग सरकार के विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं और लोकतंत्र के लिए आतुर हो उठे हैं । पश्चिमी देशों के इशारों पर चलने वाले इन देशों के तानाशाह देश की जनता का शोषण करते आए हैं और निजी लाभ कमाने के लिए देश की संपदा को लूटने से भी बाज नहीं आए ।

अफ्रीका के उत्तरी छोर पर बसे लगभग 1 करोड़ से अधिक की आबादी वाले ट्यूनीसिया में सत्ता परिवर्तन के पीछे केवल कुछ दिनों का जन-विद्रोह ही नहीं है । 23 साल से सत्ता पर काबिज तानाशाह जैनुल आबेदिन बेन अली ने देश को विकास के बजाए गरीबी, भ्रष्टाचार और भुखमरी की ओर झकझोंर कर रख दिया । ट्यूनीसिया को 1957 में फ्रांस से आजादी मिली तो हबीब बुर्गिबा सत्ता पर आसीन हुए । बुर्गिबा महात्मा गांधी के अनुयायी थे । फ्रांसीसी उपनिवेशवाद ने उन्हें कई सालों तक जेल में रखा । स्वतंत्रता के पश्चात जब ट्यूनीसिया का संविधान रचा जा रहा था तो वह भारतीय संविधान से बहुत प्रेरित थे । उन्होंने देश को सेक्युलर समाजवादी गणराज्य बनाया, लेकिन अमेरिका के दबाव में आकर निजी क्षेत्र को आर्थिक लक्ष्य बनाया । अरब मुसलमान होते हुए भी उन्होंने संविधान में फ्रांसीसी नागरिक संहिता को अपनाया और निजाम-ए-मुस्तफा को नकार दिया जिसके कारण सऊदी अरब से ट्यूनिसिया के संबंध अच्छे नहीं रहे । बुर्गिबा ने बहुपत्नी प्रथा को खत्म कर तलाक को गैर-कानूनी बना दिया, बुर्के पर पाबन्दी लगा दी, विवाह के लिए वधु की आयु 17 वर्ष कर दी और मदरसे की जगह आधुनिक शिक्षा व्यवस्था लागू कर दी । उन्होंने संसद में 25 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की और निचले सदन में श्रमिक यूनियनों, दानीरों और विशेषज्ञों के लिए उपयुक्त सीटें रखी लेकिन ट्यूनीसिया में विकास की प्रगति जारी नहीं रह सकी । पश्चिमी देशों के ईशारों पर 7 नवंबर 1987 को बुर्गिबा को डॉक्टरों द्वारा पागल साबित कराकर तत्कालीन प्रधानमंत्री बेन अली खुद राष्ट्रपति बन बैठे । सेना और पुलिस के बल पर उन्होंने शासन व्यवस्था को विकृत कर दिया और ट्यूनीसिया का राजकाज उनके परिवार के दायरे में सिमट गया । आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वह पश्चिमी देशों की कठपुतली बने रहे और जनता का शोषण करते रहे । अपना कार्यकाल बढ़ाने के लिए उन्होंने चुनावों की 2 वर्ष की अवधि को बढ़ाकर 5 वर्ष कर दिया और सेवानिवृत्ति की आयु भी 75 वर्ष कर दी । चुनावों में वह धांधली कराकर सत्ता पर काबिज रहे और जब उनका कार्यकाल 1 वर्ष रह गया तो उन्होंने अपने दामाद शाबेद अली मोटरी को उत्तराधिकार नामित किया । ट्यूनीसिया में जनविद्रोह की शुरूआत बेरोजगारी से क्षुब्ध स्नातक शिक्षित युवक द्वारा आत्महत्या करने से हुई । 17 दिसंबर 2010 को पुलिस ने एक युवक की फलों की गाड़ी जब्त कर ली और उसे दंडित भी किया । बेरोजगारी से क्षुब्ध इस युवक ने वहीं पर आत्मदाह कर लिया जिसकी खबर सुनते ही ट्यूनीसिया के युवकों का गुस्सा फूट पड़ा और वह सड़कों पर उतर आए । युवकों का गुस्सा देख बेन अली ने कुछ समझौतों की पेशकश की और 2014 में होने वाले संभावित चुनावों के बजाए कुछ माह में ही चुनाव करने की पेशकश की, लेकिन जनता की मांग सत्ता परिवर्तन की थी । जनविद्रोह को देख बेन अली परिवार सहित देश छोड़कर सऊदी अरब भाग गए । जनविद्रोह के सामने बेन अली सत्ता छोड़कर तो भाग गए लेकिन ट्यूनीसिया की यास्मीन क्रांति मात्र दिखावा लगती है क्योंकि सत्ता अभी भी पश्चिमी हुक्मरानों के हाथों में हैं । ट्यूनीसिया के प्रधानमंत्री अभी भी मोहम्मद गशूनी है जो वर्ष 1999 से इस पद पर आसीन है और कार्यकारी राष्ट्रपति के तौर पर फोआद मेबाज को नियुक्त किया गया है जो पिछली सरकार में संसद अध्यक्ष थे । यानि अफ्रीकी देश ट्यूनीसिया की सत्ता पर काबिज नेता अभी भी पश्चिम के ईशारों पर ही शासन करेंगे और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के जरिए अभी भी वैश्विक पूंजी के हितों का ख्याल रखेंगे । उल्लेखनीय है कि ट्यूनीसिया की रेतीली सतह के तले प्राकृतिक गैस, तेल और मूल्यवान वस्तुओं के भंडार है जिस पर अमेरिका व अन्य पश्चिम देश गिद्ध की तरह नजरें गढ़ाएं बैठे हैं । यहां अणु ऊर्जा के दो केन्द्र है । विश्व आर्थिक फोरम के आंकलन में यह छोटा सा गणराज्य दुनिया के प्रमुख अर्थ केन्द्रों में चालीसवें सोपान पर हैं ।

ट्यूनीसिया से प्रेरित होकर मिस्र के लोग भी 30 साल से सत्ता पर बैठे राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक के खिलाफ सड़कों पर उतर आए । मुबारक अमेरिका के ईशारों पर देश की जनता पर शासन करते आए हैं । प्रदर्शनकारियों ने देश में 30 साल से जारी आपातकाल का अंत करने और राष्ट्रªपति को दो कार्यकाल से ज्यादा समय पर पद पर रहने से रोक लगाने की मांग की है । जनता ने मुबारक को देश छोड़ने के लिए भी कहा है । बताते चले कि मिस्र में जनविद्रोह की शुरूआत होने पर अमेरिकी ईशारों पर विपक्षी नेता मोहम्मद अलबरदेई मिस्र लौट आए हैं और जनता के साथ लोकतंत्र के प्रति आवाज बुलंद कर रहे हैं । अमेरिका ने मुबारक के स्थान पर उपराष्ट्रपति उमर सुलेमान को बिठाने का खुला समर्थन किया है । अरब देशों में उठी लोकतंत्र की लहर से लीबिया के राष्ट्रपति गद्दाफी से लेकर यमन के राष्ट्राध्यक्ष अब्दुलाह सालेह की सत्ता भी खतरे में है । वहीं अल्जीरिया, सूडान, जॉर्डन, ओमान जैसे अरब देश भी जनविद्रोह से अछूते नहीं है । इन देशों के लोग गरीबी, भ्रष्टाचार, भुखमरी, महंगाई से क्षुब्ध होकर सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं । जनविद्रोह को शांत करने के लिए मुबारक ने ऐलान किया है कि सितम्बर 2011 के बाद वह मिस्र के राष्ट्रपति पद से कुर्सी छोड़ देंगे और न तो वह खुद चुनाव लड़ेंगे और न ही अपने बेटे को लड़ने देंगे लेकिन मिस्र की जनता तुरंत बदलाव चाहती है । वहीं यमन के राष्ट्रपति ने ऐलान किया है कि 2013 में वह राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार नहीं होंगे और न ही वह अपने बेटे को उम्मीदवार बनाएंगे । अल्जीरिया में 19 सालों से चले आ रहे आपातकाल को खत्म कर दिया गया है । वहीं सूडान और जॉर्डन में भी बदलाव की मांग तेजी से उठ रही है ।

अरब देशों में बदलाव की मांग तेज हो चली है । यूं तो अरब दुनिया में पहले भी बदलाव देखा जा चुका है । इराक में सत्ता परिवर्तन हुआ, लेबनान में भी कोशिशें हुई और अल्जीरिया व तुर्की में भी कट्टरपंथियों ने जोर आजमाइश पहले भी की, लेकिन यह सभी परिवर्तन अमेरिका के ईशारों पर हुए और अब भी स्थिति ऐसी ही है । अमेरिका पूरी कोशिश कर रहा है कि बदलाव उसके ईशारों पर हो और सत्ता पर अपने गुर्गों को काबिज करने की तैयारी में है । अरब देशों में बदलाव के लिए लोकतंत्र का समर्थन करने वाला अमेरिका कई वर्षों से इसी तानाशाह का साथ देता आया है । अमेरिका चतुराई से अरब देशों की जनता के सामने अपनी छवि अच्छी बनाने के लिए प्रयासरत है जिससे अप्रत्यक्ष रूप से वह इन देशांे की सत्ता पर अपना अधिकार जमाता रहे ।

अरब देशों में कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस के भंडार मौजूद है जिस पर विश्व की अर्थव्यवस्था निर्भर है । इन्हीं जरूरतों को पूरा करने के लिए पश्चिम देश अरब देशों में अपने प्यादों को बिठाना चाहते है । भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा क्योंकि जनविद्रोह के कारण अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत बढ़ गई है । इस समय अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 103 डॉलर प्रति बैरल को भी पार कर गई है । पिछली बार सबसे ज्यादा कीमत 90 डॉलर प्रति बैरल थी । कच्चे तेल की कीमत बढ़ने पर सरकारी कंपनियों पर भी दबाव बढ़ेगा और उन्हें भी कीमत बढ़ाने पर मजबूर होना होगा जिससे देश में महंगाई और उफान पर पहुंचेगी ।