Friday, August 22, 2014

समाज को फिल्मों के आइने में उतारने का घटिया प्रयास


आमिर खान के रेडियो वाले पोस्टर की चारों तरफ से आलोचना हो रही है। इससे पहले भी कई सारी फिल्मों में आपत्तिजनक दृश्यों अथवा चित्रों के चलते विरोध हो चुके हैं। सिनेमा का स्तर इतना गिर गया है कि उसमें एक्शन, थ्रिल, आर्ट, रोमांस आदि जैसे गुण तो रह ही नहीं गए हैं, रह गए हैं तो सिर्फ लव, सेक्स, धोखा, शराब, सिगरेट, पब आदि। वहीं कलाकारों के मामले में भी प्रतिभा के बजाए एक्सपोजर को ही अधिक तवज्जो दी जा रही है। इससे भारतीय समाज को दूषित करने का प्रयास किया जा रहा है। आंखिर क्यों भारतीय फिल्मों का स्तर इतना गिर रहा है? क्या इसके पीछे भी कोई षड्यंत्र है?


एक जमाना था जब नायक, नायिकाओं और खलनायकों का अपना अंदाज हुआ करता था। देवानंद की यूडलेइंगआते ही थियेटर में शोर होता था और उनके सामने आने पर लड़कियां बेहोश हो जाया करती थी। राजकुमार जैसे कलाकार की अदाकारी व संवादों में एक एटीट्यूडथा जिसे आज के हास्य कलाकार अकड़ूके नाम से पुकारते हैं। संजीव कुमार को संजीदा नायक की श्रेणी में रखा गया, वहीं बात करें शम्मी कपूर की तो एक जंगलीमिजाज वाला कलाकार याद आता है। राजेश खन्ना के हंसमुख मिजाज से कौन वाकिफ नहीं है। आनंद फिल्म में जिस तरह हंसते हंसते उन्होंने इतना गंभीर रोल किया वह सदा के लिए अमर है। वहीं भारतीय सिनेमा के चॉकलेटीनायक ऋषि कपूर के आते ही रोमांटिक फिल्मों का बाजार गरमाने लगा।
भारत की नायिकाओं में भी एक मासूमियत के साथ ही उनकी अदाकारी का एक अलग अंदाज था। नर्गिस की खूबसूरती के तो विश्वभर में दिवाने थे। शर्मिला टैगोर के शर्मीले अंदाज से तो सभी वाकिफ है, दूसरी ओर हेलेन की सिर्फ एक झलक देखने के लिए सिनेमा हॉल पूरी तरह से भर जाया करते थे। उनके जैसा नृत्य किसी अन्य अदाकारा में नहीं देखा जा सकता। ड्रीम गर्ल के आते ही भारतीय युवाओं ने भी सपने देखने शुरू कर दिए। डिंपल कपाडि़या के सेक्सी अंदाज से तो सभी घायल थे किन्तु उन्होंने इस अंदाज में भी कभी अश्लीलता को पार नहीं किया।
भारतीय सिनेमा की पटकथा और संवादों पर भी काम किया जाता है। सभी फिल्मों में भारतीयता की संपूर्ण झलक देखी जा सकती थी। कहते भी हैं कि फिल्में समाज का आइना होती हैं और बीसवीं सदी तक भारतीय फिल्मों पर भी यह बात पूरी तरह से लागू होती थी। भारतीय गांव, रीति-रिवाज, विवाह, रिश्तें, भारतीय नारी, भारतीय पुरूष आदि सभी का समावेश होता था और साथ ही खेतों व वादियों में फिल्माये गए गाने तो फिल्मों की जान हुआ करते थे।
उस समय एक्शन, थ्रिल, आर्ट, रोमांस आदि सभी प्रकार की फिल्में बनती थी किन्तु आज भारतीय सिनेमा का स्तर इतना गिर गया है कि उसमें एक्शन, थ्रिल, आर्ट, रोमांटिक आदि जैसे गुण तो रह ही नहीं गए हैं, रह गए हैं तो सिर्फ लव, सेक्स, धोखा, शराब, सिगरेट, पब आदि। भारतीय सिनेमा इतने पतन की ओर चला जाएगा, इसका अंदाजा किसी को भी नहीं था। आज के नायक नायिकाओं की अदाकारी में याद रखने जैसा कुछ नहीं है। शायद सभी अच्छे कलाकारों ने अपने आप को थियेटर तक ही सीमित कर दिया है और फिल्मों में केवल जुगाड़वाले ही कलाकार पहुंच रहे हैं।
पहले बनने वाली फिल्में समाज का आइना हुआ करती थी किन्तु आज समाज को जबरदस्ती फिल्मों का आइना बनाने पर जोर दिया जा रहा है, अर्थात् भारतीय संस्कृति व समाज को दूषित करने के पुरजोेर प्रयास हो रहे हैं। भारत की युवा पीढ़ी को अश्लीलता का पाठ पढ़ाया जा रहा है और जो जरा बहुत शील भी बचता है उसे पिछड़ाहुआ कहकर दुत्कारने का प्रयास किया जाता है। शराब जो पहले चोरी छिप्पे से बिकती थी आज माॅलों की शान बन रही हैं और यह सब केवल भारतीय सिनेमा की ही देन है। आंखिर ऐसा क्यों हो रहा है? कहीं विदेशी ताकतें ही भारत की युवा पीढ़ी को बर्बाद करने का प्रयास तो नहीं कर रही? हर बात में पश्चिमी सभ्यता को अपनाने का जो दौर चल पड़ा है उसमें समाज पर इसके प्रभाव का आंकलन सबकी नजरों में बेइमानी नजर आ रहा है। लेकिन क्या पश्चिमी सभ्यता को अपनाने का मतलब केवल शराब, सिगरेट या अश्लीलता को अपनाना ही है? यदि अंग्रेजी सिनेमा की ओर गौर करे तो उसमें में अश्लीलता जैसा कुछ नहीं है। वह अपनी फिल्मों के कंसेप्ट में पूरी मेहनत करते हैं और शानदार फिल्मों का निर्माण करते हैं। भारतीय सिनेमा क्यों उनसे यह सब नहीं सीख रहा है? या उसे वही सब दिखाने के लिए विवश किया जा रहा है?

भारत में हो रहे अपराध एवं बलात्कार की बात करें तो उसके पीछे भी कुछ हद तक सिनेमा ही जिम्मेदार है। भारत का समाज आज की फिल्मों जैसा तो है नहीं, वह तो अभी भी बहुत पिछड़ा हुआ है। आज भी भारत की बड़ी आबादी अनपढ़ और दोयम दर्जे का जीवन जीने को मजबूर है। उसके आसपास खुलेपन जैसा कुछ नहीं है। ऐसे में जब पर्दे पर आधे-अधूरे कपड़़ों में संवेदनशील दृश्यों को दिखाया जाता है तो इससे उत्कंठा का जन्म होता है और इसका शिकार अदाकारा नहीं बल्कि आम लड़की होती है जिसके आसपास सुरक्षा गार्ड तो दूर की बात है, उसकी आवाज तक सुनने वाला कोई नहीं होता।
आज सिनेमा पर रिश्तों को भी बदनाम करने की कोशिशें चल रही हैं। पहले की फिल्मों में जहां माता-पिता, भाई-बहन के रिश्तें और एक स्त्री के प्रति समाज की जिम्मेदारी स्पष्ट झलकती थी वहीं आज फिल्मों में केवल गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड का ही रिश्ता बचा है मानो युवा पीढ़ी को आशिक बनाने का ही जिम्मा इन्होंने उठा लिया हो। आज की फिल्मों पर गौर करें तो एक षड्यंत्र और स्पष्ट हो जाएगा और वह है लव जिहाद। अधिकतर फिल्मों में मुस्लिम लड़कों को हिन्दू लड़कियों के साथ रोमांस करते दिखाया जा रहा है जिसका समाज पर भी गहरा प्रभाव पड़ रहा है।

उपरोक्त बातों को परखने के लिए अपने आसपास के वातावरण पर गौर करेंगे तो माजरा समझ में आ जाएगा। कहा जाता है कि फिल्मों में केवल वही परोसा जाता है जो समाज मांग होती है किन्तु हमारे पास देखने के लिए आज विकल्प ही कहां है? सब ओर केवल दूषित मानसिकता ही नजर आती है। सिनेमा को इस दौर से निकालना अत्यंत आवश्यक है और इसके लिए सबको मिलकर प्रयास करना होगा। आज जैसी फिल्में बन रही हैं उनका विरोध करना होगा।