Monday, December 15, 2014

महिलाओं को लेकर ये दोगुलापन किस बात का?




16 दिसंबर 2012 का मनहूस दिन, इसी दिन दिल्ली में निर्भया के साथ एक अमानवीय घटना घटित हुई थी जिसने मानवता को शर्मसार कर दिया था। इस घटना ने एक बार फिर से महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा एक बार फिर सामने ला दिया। 16 दिसंबर तब था तब चारों ओर लोगों के अंदर गुस्सा था और समाज का प्रत्येक व्यक्ति केवल उस लड़की को इंसाफ दिलाने को उत्सुक था, वही 16 दिसंबर आज है, किन्तु 2014, जहां समाज के कुछ व्यक्ति ठेकेदार की भूमिका में सामने निकलकर आ रहे हैं और स्वयं को अति बुद्धिजीवीश्रेणी में दिखाकर रेप के कारणों के लिए महिलाओं को जिम्मेदार ठहराने से नहीं चूक रहे और लगे हाथ अपनी सलाह देकर स्वयं को जागरूक दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।
अब जरा कुछ सवालों के जवाब तलाशते हैं। निर्भया कांड के बाद सुरक्षा के कितने इंतजाम हुए हैं? रेप मामालों में कमी आई है या बढ़ोत्तरी? किसी भी महिला के साथ छेड़छाड़ जैसी घटना होने पर भी समाज के ये ठेकेदार लोग क्यों नपुंसक बनकर देखते रहते हैं? और फिर ठेकेदारी करने से क्यों नहीं चूकते? किसी भी महिला के साथ अमानवीय घटना होने पर कितने लोग इंसाफ की गुहार लगाते हैं?
शायद इन सबका जवाब हम सभी जानते हैं। रेप के पीछे कुछ तथाकथिक बुद्धिजीवियों की राय है कि यह महिलाओं के आधुनिक होने के कारण हो रहा है। उनके कपड़े, उनकी नौकरी, उनका बाहर रहना या किसी दोस्त अथवा सहेली मिलना इत्यादि। उन्हीं लोगों से एक सवाल यह भी है कि वो इतना गौर से केवल यही देखते हैं कि किसी महिला ने कितने छोटे कपड़े पहने हैं या वह रात को किसके साथ अथवा कितने बजे हैं? वो इतनी रात को बाहर क्या कर रहे हैं क्योंकि महिलाओं को बचाने का मामला तो आज तक नहीं सुनाई दिया? अब यहां महिलाओं को घूर वो रहे हैं या कोई और? तो क्या ये भी अपराध की श्रेणी में नहीं है? या फिर महिलाओं का पुरूषों को भी पीछे छोड़ना उन्हें रास नहीं आ रहा और जलन में वह कह रहे हैं कि ‘‘जो हो रहा है अच्छा हो रहा है। अपनी बेडि़यों को तोड़ने की इन्हें यही सजा मिलनी चाहिए।’’
आज सबसे ज्यादा लफ्फाजी महिलाओं के कपड़ों को लेकर होती हैं कि यह उकसाने का काम करते हैं। अब यहीं सवाल यह भी आता है कि रेप कि शिकार लड़कियों में से कितनों के बारे में आपने सुना है कि उन्होंने कपड़े ऐसे पहने थे या उन बच्चियों का क्या जिनकी मासूमियत को तार तार करने से भी ये रेपिस्ट बाज नहीं आते। वहीं पुरुषों की ओर ध्यान दे तो जगह जगह खुले में सबके सामने शौच करने पर उन पर प्रश्न क्यों नहीं उठता? तब समाज के ये ठेकेदार क्यों चुप रहते हैं?
आज जब हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं, वहीं महिलाओं को लेकर आज भी दकियानूसी विचारधारा रास नहीं आती। जब लोग रात को पब या डिस्क जैसी जगह पर अपनी महिला मित्रों के साथ नाचते नजर आते हैं तो वह आधुनिकता की चादर ओढ़ लेते हैं लेकिन जब बात आती है उनकी पत्नी अथवा बहनों की तो क्यों सभ्यता, भारतीयता जैसी बातों का पाठ पढ़ाया जाता है? महिलाओं को लेकर ये दोगुलापन किस बात का?

मैं यहां आप लोगों को कोई सलाह नहीं देना चाहती कि सुरक्षा के कड़े इंतजाम हो या कुछ और। बस इन अति बुद्धिजीवियोंआधुनिक कम दकियानूसीपुरूषों से ये जरूर कहना चाहती हूं कि एक बार स्वयं को महिलाओं के स्थान पर रखकर जरूर सोचे कि वह किन परिस्थितियों का सामना करके अपने वजूद को बनाती व बचाती है और जिंदगी के हर कदम पर अपनी जिम्मेदारियों (जैसे विवाह के समय माता-पिता से दूर, बच्चों को जन्म देना, उन्हें पालना-पोसना व अन्य कई जिम्मेदारियां) को कैसे निभाती हैं।

Sunday, November 2, 2014

स्थायी विकास के लिए संसाधन प्रबंधन एक आवश्यक शर्त


जैन चिंतन केवल आध्यामिक अभिव्यक्ति ही नहीं है, अपितु इसमें देश की समस्त समस्याओं का भी समाधान मौजूद है। आज देश के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती स्थायी विकास की है जो संसाधनों के बेहतर प्रबंधन के बिना संभव ही नहीं है। इसी गंभीर विषय को लेकर दिल्ली के छतरपुर स्थित जैन साधना केन्द्र में 1 व 2 नवम्बर को संसाधन प्रबंधन में नैतिकता एवं मूल्यों का समावेशविषय पर दो दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया जिसमें विद्वजनों ने हिस्सा लिया।
सेमिनार में मौजूद सरकार के आर्थिक मामलों के सलाहकार एमसी सिंघी ने भगवान महावीर के आर्थिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया । उन्होंने बताया कि महावीर स्वामी के अनुसार आर्थिक रूप से सक्षम तभी बना जा सकता है जब संसाधनों का बेहतर प्रबंधन हो। आज अनावश्यक आवश्यकता बढ़ने के कारण संसाधनों का भी तीव्र गति से दोहन हो रहा है। इसे रोकने के लिए समाज को आत्मसंयम के लिए प्रोत्साहित करना होगा। आज अमीर और गरीब का जो भेदभाव है उसके पीछे कारण संसाधनों का अनुचित बंटवारा एवं गलत प्राथमिकताओं को अपनाना हैं। भगवान महावीर के अनुसार उत्पादन उपभोक्ता केन्द्रित होना चाहिए और उपभोग की भी सीमा का निर्धारण होना चाहिए। भगवान महावीर अनावश्यक हथियारों के निर्माण, युद्ध प्रशिक्षण एवं खनन अथवा जंगल को नुकसान पहुंचाने वाली अन्य गतिविधियों के भी विरोध में थे। श्री सिंघी ने बताया के विकास चार खम्भों पर टिका होना चाहिए जो आर्थिक समृद्धि, प्रकृति के प्रति उदारता, नैतिक मूल्यों के प्रति सचेत और आपसी सम्मान हैं।
एक अन्य सेशन में इथियोपिया की राजदूत जेनेट जेविडे ने बताया कि उनका देश पिछले कुछ सालों में तरक्की कर पाया है क्योंकि उनकी नीतियां सही थी। जेविडे के अनुसार अमीर एवं गरीब के बीच की खाई को पाटना बहुत आवश्यक है। सरकार को देश में सड़क, अस्पताल, विद्यालयों, यातायात एवं कृषि की बेहतर व्यवस्था करानी चाहिए तभी देश का स्थायी विकास संभव है। जेविडे के अनुसार सब कुछ निजी हाथों में नहीं जाना चाहिए, इसमें सरकार को भी हस्तक्षेप करना चाहिए और जनता को भागीदारी करनी चाहिए। कार्यक्रम में मौजूद बोस्निया एवं हेर्जेगोविना के राजदूत डॉ. सबीत सुबासिक ने भी माना कि स्थायी विकास के लिए अमीर और गरीब के बीच की खाई को पाटना बहुत आवश्यक है।
होली-सी अपोस्तोलिक नानश्यचर के राजदूत एवं पोप के साथ रह चुके साल्वेटर पिनाकिया ने स्थायी विकास के लिए नैतिक मूल्यों के समावेश एवं सामाजिक सद्भाव पर बल दिया। उन्होंने स्थायी विकास को हासिल करने कि लिए सार्वजनिक, निजी एवं सरकारी क्षेत्रों के एक होने की बात कही।

कार्यक्रम में बोलिविया के राजदूत जॉज र्कार्डेनस रोबल्स, भारत के पूर्व चुनाव आयुक्त डॉ. जीवीजी कृष्णमूर्ति, सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिन्दर सिंह जैसे कई विद्वान जन उपस्थित थे।

Friday, August 22, 2014

समाज को फिल्मों के आइने में उतारने का घटिया प्रयास


आमिर खान के रेडियो वाले पोस्टर की चारों तरफ से आलोचना हो रही है। इससे पहले भी कई सारी फिल्मों में आपत्तिजनक दृश्यों अथवा चित्रों के चलते विरोध हो चुके हैं। सिनेमा का स्तर इतना गिर गया है कि उसमें एक्शन, थ्रिल, आर्ट, रोमांस आदि जैसे गुण तो रह ही नहीं गए हैं, रह गए हैं तो सिर्फ लव, सेक्स, धोखा, शराब, सिगरेट, पब आदि। वहीं कलाकारों के मामले में भी प्रतिभा के बजाए एक्सपोजर को ही अधिक तवज्जो दी जा रही है। इससे भारतीय समाज को दूषित करने का प्रयास किया जा रहा है। आंखिर क्यों भारतीय फिल्मों का स्तर इतना गिर रहा है? क्या इसके पीछे भी कोई षड्यंत्र है?


एक जमाना था जब नायक, नायिकाओं और खलनायकों का अपना अंदाज हुआ करता था। देवानंद की यूडलेइंगआते ही थियेटर में शोर होता था और उनके सामने आने पर लड़कियां बेहोश हो जाया करती थी। राजकुमार जैसे कलाकार की अदाकारी व संवादों में एक एटीट्यूडथा जिसे आज के हास्य कलाकार अकड़ूके नाम से पुकारते हैं। संजीव कुमार को संजीदा नायक की श्रेणी में रखा गया, वहीं बात करें शम्मी कपूर की तो एक जंगलीमिजाज वाला कलाकार याद आता है। राजेश खन्ना के हंसमुख मिजाज से कौन वाकिफ नहीं है। आनंद फिल्म में जिस तरह हंसते हंसते उन्होंने इतना गंभीर रोल किया वह सदा के लिए अमर है। वहीं भारतीय सिनेमा के चॉकलेटीनायक ऋषि कपूर के आते ही रोमांटिक फिल्मों का बाजार गरमाने लगा।
भारत की नायिकाओं में भी एक मासूमियत के साथ ही उनकी अदाकारी का एक अलग अंदाज था। नर्गिस की खूबसूरती के तो विश्वभर में दिवाने थे। शर्मिला टैगोर के शर्मीले अंदाज से तो सभी वाकिफ है, दूसरी ओर हेलेन की सिर्फ एक झलक देखने के लिए सिनेमा हॉल पूरी तरह से भर जाया करते थे। उनके जैसा नृत्य किसी अन्य अदाकारा में नहीं देखा जा सकता। ड्रीम गर्ल के आते ही भारतीय युवाओं ने भी सपने देखने शुरू कर दिए। डिंपल कपाडि़या के सेक्सी अंदाज से तो सभी घायल थे किन्तु उन्होंने इस अंदाज में भी कभी अश्लीलता को पार नहीं किया।
भारतीय सिनेमा की पटकथा और संवादों पर भी काम किया जाता है। सभी फिल्मों में भारतीयता की संपूर्ण झलक देखी जा सकती थी। कहते भी हैं कि फिल्में समाज का आइना होती हैं और बीसवीं सदी तक भारतीय फिल्मों पर भी यह बात पूरी तरह से लागू होती थी। भारतीय गांव, रीति-रिवाज, विवाह, रिश्तें, भारतीय नारी, भारतीय पुरूष आदि सभी का समावेश होता था और साथ ही खेतों व वादियों में फिल्माये गए गाने तो फिल्मों की जान हुआ करते थे।
उस समय एक्शन, थ्रिल, आर्ट, रोमांस आदि सभी प्रकार की फिल्में बनती थी किन्तु आज भारतीय सिनेमा का स्तर इतना गिर गया है कि उसमें एक्शन, थ्रिल, आर्ट, रोमांटिक आदि जैसे गुण तो रह ही नहीं गए हैं, रह गए हैं तो सिर्फ लव, सेक्स, धोखा, शराब, सिगरेट, पब आदि। भारतीय सिनेमा इतने पतन की ओर चला जाएगा, इसका अंदाजा किसी को भी नहीं था। आज के नायक नायिकाओं की अदाकारी में याद रखने जैसा कुछ नहीं है। शायद सभी अच्छे कलाकारों ने अपने आप को थियेटर तक ही सीमित कर दिया है और फिल्मों में केवल जुगाड़वाले ही कलाकार पहुंच रहे हैं।
पहले बनने वाली फिल्में समाज का आइना हुआ करती थी किन्तु आज समाज को जबरदस्ती फिल्मों का आइना बनाने पर जोर दिया जा रहा है, अर्थात् भारतीय संस्कृति व समाज को दूषित करने के पुरजोेर प्रयास हो रहे हैं। भारत की युवा पीढ़ी को अश्लीलता का पाठ पढ़ाया जा रहा है और जो जरा बहुत शील भी बचता है उसे पिछड़ाहुआ कहकर दुत्कारने का प्रयास किया जाता है। शराब जो पहले चोरी छिप्पे से बिकती थी आज माॅलों की शान बन रही हैं और यह सब केवल भारतीय सिनेमा की ही देन है। आंखिर ऐसा क्यों हो रहा है? कहीं विदेशी ताकतें ही भारत की युवा पीढ़ी को बर्बाद करने का प्रयास तो नहीं कर रही? हर बात में पश्चिमी सभ्यता को अपनाने का जो दौर चल पड़ा है उसमें समाज पर इसके प्रभाव का आंकलन सबकी नजरों में बेइमानी नजर आ रहा है। लेकिन क्या पश्चिमी सभ्यता को अपनाने का मतलब केवल शराब, सिगरेट या अश्लीलता को अपनाना ही है? यदि अंग्रेजी सिनेमा की ओर गौर करे तो उसमें में अश्लीलता जैसा कुछ नहीं है। वह अपनी फिल्मों के कंसेप्ट में पूरी मेहनत करते हैं और शानदार फिल्मों का निर्माण करते हैं। भारतीय सिनेमा क्यों उनसे यह सब नहीं सीख रहा है? या उसे वही सब दिखाने के लिए विवश किया जा रहा है?

भारत में हो रहे अपराध एवं बलात्कार की बात करें तो उसके पीछे भी कुछ हद तक सिनेमा ही जिम्मेदार है। भारत का समाज आज की फिल्मों जैसा तो है नहीं, वह तो अभी भी बहुत पिछड़ा हुआ है। आज भी भारत की बड़ी आबादी अनपढ़ और दोयम दर्जे का जीवन जीने को मजबूर है। उसके आसपास खुलेपन जैसा कुछ नहीं है। ऐसे में जब पर्दे पर आधे-अधूरे कपड़़ों में संवेदनशील दृश्यों को दिखाया जाता है तो इससे उत्कंठा का जन्म होता है और इसका शिकार अदाकारा नहीं बल्कि आम लड़की होती है जिसके आसपास सुरक्षा गार्ड तो दूर की बात है, उसकी आवाज तक सुनने वाला कोई नहीं होता।
आज सिनेमा पर रिश्तों को भी बदनाम करने की कोशिशें चल रही हैं। पहले की फिल्मों में जहां माता-पिता, भाई-बहन के रिश्तें और एक स्त्री के प्रति समाज की जिम्मेदारी स्पष्ट झलकती थी वहीं आज फिल्मों में केवल गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड का ही रिश्ता बचा है मानो युवा पीढ़ी को आशिक बनाने का ही जिम्मा इन्होंने उठा लिया हो। आज की फिल्मों पर गौर करें तो एक षड्यंत्र और स्पष्ट हो जाएगा और वह है लव जिहाद। अधिकतर फिल्मों में मुस्लिम लड़कों को हिन्दू लड़कियों के साथ रोमांस करते दिखाया जा रहा है जिसका समाज पर भी गहरा प्रभाव पड़ रहा है।

उपरोक्त बातों को परखने के लिए अपने आसपास के वातावरण पर गौर करेंगे तो माजरा समझ में आ जाएगा। कहा जाता है कि फिल्मों में केवल वही परोसा जाता है जो समाज मांग होती है किन्तु हमारे पास देखने के लिए आज विकल्प ही कहां है? सब ओर केवल दूषित मानसिकता ही नजर आती है। सिनेमा को इस दौर से निकालना अत्यंत आवश्यक है और इसके लिए सबको मिलकर प्रयास करना होगा। आज जैसी फिल्में बन रही हैं उनका विरोध करना होगा।

Tuesday, July 1, 2014

महिला स्वावलंबन में सेवा इंटरनेशल की पहल


भारत की 70 प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है। गांवों में ही भारत का अस्तित्व बसता है किंतु इसके बावजूद भी भारतीय गांव का विकास शहरों के सामने फीका पड़ा हुआ है। गांवों की उपेक्षा हमेशा से की जाती रही है। विकास के नाम पर वहां बहुत कम योजनाएं हैं। युवाओं के लिए अवसरों में कमी है। और जब बात आती है महिलाओं की तो उनके लिए योजनाएं न के बराबर ही हैं। उनके उत्थान के लिए कोई सरकार कोई एनजीओ गांव में काम करने के लिए तैयार नहीं है। यह सरकार और एनजीओ केवल शहर की महिलाओं के लिए ही कार्य कर रहे हैं। ऐसे में सुदूर गांवों की महिलाएं अपने समग्र विकास से वंचित हैं और अपना पूरा जीवन मजबूरी के चलते अंधकार में जीने को विवश हैं।
सुदूर गांवों की महिलाओं की इसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए उनके उत्थान के लिए सेवा इंटरनेशनल ने कुछ कार्यक्रम चलाए हैं। यह कार्यक्रम महिलाओं को प्रशिक्षित कर उनके स्वालंबन में कारगर सिद्ध हा रहे हैं। सेवा इंटरनेशनल की यह गतिविधियां उत्तराखंड, गुजरात, उड़ीसा, असम और कर्नाटक में चल रही हैं। सभी कार्यक्रम क्षेत्र विशेष की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए चलाए जा रहे हैं। 
सेवा इंटरनेशल का सबसे बड़े स्तर पर कार्यक्रम उत्तराखंड में चल रहा है। पिछले वर्ष वहां आई त्रासदी ने सबकुछ तहस नहस कर दिया। कई एनजीओ वहां पुनर्वास के लिए आई किंतु आते के साथ ही वहां से चली भी गई। किसी ने भी वहां टिककर कार्य नहीं किया। किंतु सेवा इंटरनेशनल वहां कई महीनों से कार्य कर रही है। यह कार्यक्रम रूद्रप्रयाग और चमोली के सुदूर गांवों में चलाए जा रहे हैं। सेवा इंटरनेशनल के कार्यकर्ता मीलों पैदल चलकर इन क्षेत्रों में पहुंचते हैं और लोगों की मदद करते हैं। इन क्षेत्रों की सबसे खास बात यह है कि वहां कृषि महिलाओं द्वारा की जाती है। सभी परिवारों की अर्थव्यवस्था महिलाओं से ही चलती है। किंतु वहां की भूमि कृषि के अनुकूल होने के बावजूद भी महिलाओं में कृषि के प्रशिक्षण की कमी के कारण उन्हें अधिक लाभ नहीं मिल पाता है। इसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए सेवा इंटरनेशनल ने वहां महिलाओं को कृषि की आधुनिक तकनीकी सिखाने का जिम्मा लिया है। वह उन्हें प्रशिक्षण के साथ ही उन्नत बीज भी उपलब्ध करा रहा है। उत्तराखंड में सेवा इंटरनेशनल महिलाओं के आर्थिक स्वावलंबन के लिए कृषि के आलावा कम्प्यूटर प्रशिक्षण और एवं कढ़ाई बुनाई का प्रशिक्षण भी दे रहा है।
गुजरात के कच्छ में सेवा इंटरनेशनल महिलाओं को हस्तशिल्प का प्रशिक्षण भी दे रहा है। कढ़ाई-बुनाई में इन महिलाओं ने बहुत ही अच्छा प्रदर्शन किया है। साड़ी, सूट, बेड-शीट, कुशन कवर, पर्स आदि पर इनके द्वारा की गई कढ़ाई सभी का ध्यान आकर्षित कर लेती है। सेवा इंटरनेशनल इन महिलाओं को न सिर्फ प्रशिक्षण देता है बल्कि इनके लिए बाजार भी उपलब्ध कराता है। वह इनके द्वारा निर्मित उत्पादों को शहर में बेचने का प्रबन्ध कराता है।
उड़ीसा में चूंकि पत्तल बनाना एक मुख्य उद्योग है, इसीलिए सेवा इंटरनेशनल महिलाओं को स्वावलम्बन के लिए पत्तल बनाना सिखा रहा है। इससे महिलाओं के लिए रोजगार का अवसर खुला है।
असम में सेवा इंटरनेशनल महिलाओं को स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान कर रहा है। वहां वह चिकित्सक उपलब्ध कराने के साथ ही उन्हें मुफ्त में दवाएं उपलब्ध कराता है।
महिलाओं के स्वालम्बन के लिए ही इसी प्रकार की गतिविधियां कर्नाटक के बेंगलुरू में भी चल रही है।

अतः समग्र रूप से देखा जाए तो सेवा इंटरनेशल भारत के उन क्षेत्रों में कार्यक्रम चला रहा है जो सरकार एवं अन्य एनजीओ की नजर में उपेक्षित हैं। सेवा इंटरनेशनल के इन कार्यक्रमों से महिलाएं भी काफी उत्साहित हैं और बढ़-चढ़कर इन गतिविधियों में भाग ले रही हैं। सेवा इंटरनेशल के यह प्रयास आगे और विस्तारित होंगे व अन्य क्षेत्रों में भी चलाए जाएंगे।