Monday, October 17, 2011

राजनीतिक पत्रकारिता में कोई दम नहीं: अरविन्द घोष



विदेशों में भारतीय पत्रकारिता की नींव को मजबूत करने वाले व आपातकाल में भी चौथे स्तम्भ की मशाल को जलाए रखने वाले यशस्वी पत्रकार अरविन्द घोष से बातचीत के प्रमुख अंशः

पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका आगमन कैसे हुआ?

विज्ञान विषय में स्नातक करने के पश्चात् मैंने 2-3 सरकारी नौकरियां की लेकिन इनमें रचनात्मकता के अभाव के कारण मैं निराश हो गया। एकनाथ रानाडे ने मुझे हिन्दुस्थान समाचार में भेजा जहां श्री बालेश्वर अग्रवाल ने मुझे पटना में अंग्रेजी डेस्क के लिए भेज दिया। पटना में हिन्दुस्थान समाचार के संवाददाता के तौर पर मैंने 1 जनवरी 1958 से पत्रकारिता की शुरूआत की। वहां से एक महीने बाद मुझे काठमांडु भेज दिया गया।

नेपाल में पत्रकारिता करते समय आपके क्या अनुभव रहे?

नेपाल में 15 दिसंबर 1960 को एक घटना हुई। नेपाली कांग्रेस पार्टी के नेता बिश्वेश्वर प्रसाद कोइराला (बी.पी.) 1959 में लोकतांत्रिक तरीके से प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए थे। नेपाल के राजा महेन्द्र शाह ने 15 दिसंबर 1960 को बी.पी. की सरकार भंग करके उन्हें और नेपाली कांग्रेस के अन्य नेताओं को जेल में डलवा दिया। एक कार्यक्रम के दौरान उन सबको सेना के द्वारा गिरफ्तार किया गया, इसके साथ ही अन्य नेताओं को भी जेल में भेज दिया गया। उस समय नेपाल में भारत से मैं अकेला भारतीय पत्रकार था जो मौके पर मौजूद था। यह एक एक्सक्लूसिव स्टोरी थी जिससे मुझे काफी प्रसिद्धि मिली। नेपाल से मैंने पीटीआई, स्टेट्समैन और लंदन टाइम्स के लिए रिपोर्टिंग की। 10 वर्ष नेपाल में रहने के बाद माधवराव मुले ने मुझे दिल्ली बुला लिया। दिल्ली आकर मैंने मदरलैंडमें काम शुरू किया।

बांग्लादेश में आजादी के संघर्ष के दौरान आपका कोई महत्वपूर्ण संस्मरण?

बांग्लादेश की आजादी के दौरान हम वहां रिपोर्टिंग के लिए गए थे। एक दिन बांग्लादेशियों ने 6-7 पठान सैनिकों को मार गिराया और उनको गाड़ दिया। कुत्ते उनकी हड्डियां खा रहे थे। मैं इस दृश्य की फोटो लेने के लिए अपने सहकर्मी के साथ पूर्वी पाकिस्तान की सीमा में चला गया, लेकिन जब लौट रहा था तो एक पुलिसवाला पूछताछ करने लगा-‘‘आप कहां गए थे, कैसे गए थे, आपके पास पासपोर्ट नहीं है’’। एकदम से मैंने कहा कि हमें अवामी लीग पार्टी के सांसद ने भेजा है। उस समय वह भारत के त्रिपुरा में थे। हमारा मकसद पुलिसवाले को भारतीय सीमा तक लाना था और वह सीमा तक आ गया। भाग्यवश वह सांसद हमारी ओर आ रहा था और उन्होंने पुलिसवाले को डांट दिया कि यह पत्रकार हमारी मदद कर रहे हैं और तुम इन्हें तंग कर रहे हो। इतने में हम भारतीय सीमा के अंतर्गत आ चुके थे। बांग्लादेश का यह अनुभव काफी भयानक था। वह हमें गोली भी मार सकता था। उस दौरान अनेक पत्रकार लापता हुए थे।

मदरलैंडसमाचार-पत्र सरकार विरोधी तीव्र स्वर के लिए चर्चा में रहा, इसमें आपकी क्या भूमिका रही?

मदरलैंड केवल 1 वर्ष ही चल सका, लेकिन इस दौरान पत्रकार के तौर पर मुझे बहुत संतुष्टि प्राप्त हुई। इसके माध्यम से हम सरकार के नकारात्मक पहलुओं को उजागर किया करते थे। मदरलैंड विपक्ष का समाचार-पत्र बन गया और बहुत कम समय में यह समाचार-पत्र प्रसिद्ध हुआ। मदरलैंड इंदिरा गांधी की सरकार का कड़ा आलोचक था जिस पर सेंसरशिप की मार पड़ी। आपातकाल लागू होने से एक दिन पहले 24 जून 1975 की रात को इंदिरा गांधी सरकार ने समाचार-पत्रों की बिजली बाधित कर दी। कार्यालय से घर पहुंचते ही फोन आया कि मदरलैंड के संपादक केवल रतन मल्कानी जी को गिरफ्तार कर लिया गया है। यह खबर मिलने के तुरन्त बाद हम कार्यालय पहुंचे और इसके बारे में लिखना शुरू कर दिया और रात 1:30 बजे के करीब अचानक कार्यालय में अंधेरा छा गया। मैंने सभी को कहा कि ‘‘अब घर जाना चाहिए, लोकतंत्र खत्म हो गया।’’ अगले दिन सुबह आकाशवाणी के समाचार बुलेटिन में समाचार वाचक के स्थान पर स्वयं इंदिरा गांधी ने आकर आपातकाल की घोषणा की और प्रेस पर सेंसरशिप ठोक दी। इसके बाद जब मैं कार्यालय पहुंचा तो वहां एक भी संवाददाता नहीं था। मैंने हार नहीं मानी और सेंसरशिप को ताक पर रखकर आपातकाल के विरोध में लिखना शुरू कर दिया। उस दिन मुझे महसूस हुआ कि मदरलैंड का यह आखिरी संस्करण होगा। मैंने मुख्य स्टोरी लिखनी शुरू कर दी। मेरे साथ उस दिन उपेन्द्र कपूर ने भी काम किया और हमने रात की प्रतीक्षा न करते हुए दोपहर 2 बजे के करीब पृष्ठ छोड़ दिया। इस संस्करण की हजारों प्रतियां बिकी और कुछ समय बाद यह ब्लैक में बिकनी शुरू हो गई। अगले दिन हम इस पत्र का 12 बजे डाक संस्करण निकालने वाले थे लेकिन 11 बजे पुलिस आ गई और उन्होंने सब कुछ बंद कर दिया।

पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करते हुए किस विषय में आपकी रूचि सबसे अधिक रही?

आपातकाल के बाद मैंने हिन्दुस्तान टाइम्स में काम शुरू किया। वहां मैंने अनुभव किया कि राजनीतिक पत्रकारिता में कोई दम नहीं है। उस समय मैं गर्मियों में राजस्थान के मरूस्थलीय क्षेत्रों में जाया करता था। वहां की जीवन शैली ने मुझे काफी प्रभावित किया। इसके बाद मेरा रूझान विकासात्मक, कृषि, जल संसाधनों और भारतीय रेलवे विषयक पत्रकारिता में होने लगा। सबसे ज्यादा मैं विकासात्मक विषयों पर लिखता था।

वर्तमान मीडिया में आप क्या परिवर्तन देखते हैं?

तकनीकी विकास के कारण आज मीडिया नई ऊंचाइयों को छू रहा है। मैं जब नेपाल में था तो कार्यालय तक समाचार पहुंचाने के लिए टेलीग्राम भेजने में डेढ़ घंटे का समय लग जाता था। नेपाल में रिपोर्टिंग के दौरान पहले टेलीग्राम भेजने की होड़ लगी हुई थी। एक कार्यक्रम के दौरान मैंने टाइपराइटर रखा हुआ था जिसे चलाने के लिए एक आदमी भी था। जीप वाले को बोला कार्यक्रम खत्म होते ही मैं दौड़कर आऊंगा और पीछे से कूदकर चढ़ जाऊंगा, तुम इंजन चालू रखना। हमने ऐसा ही किया और जब टेलीग्राम कार्यालय पहुंचे तो देखा वहां एक अमेरिकी पत्रकार पहले से पहुंचा हुआ था, मैं दूसरे नंबर पर था। इसी तरह मॉस्को में मैं साम्यवाद की समाप्ति देखने के लिए गया था। तब टेलेक्स के आने से समाचार भेजना थोड़ा आसान हो गया था। आज तकनीकी के आने से पत्रकारिता में क्रांति आई है। कम्प्यूटर के माध्यम से समाचार तुरन्त भेजा जा सकता है।

मास्को में साम्यवाद की समाप्ति के दौरान आपके क्या अनुभव रहे?

मास्को में रिपोर्टिंग करना मेरे लिए काफी संतोषजनक रहा। मास्को में साम्यवाद की समाप्ति के बाद विश्व के अन्य देशों में भी यह खत्म होना शुरू हुआ। मास्को में साम्यवाद के खिलाफ आवाज उठा रहे लाखों लोगों को मार दिया गया था, लेकिन उसका अंत अप्रत्याशित रूप से हुआ। दो लड़कों की मौत के कारण साम्यवाद खत्म हो गया जो आश्चर्यजनक था। साम्यवाद के विरोध में वह टैंक के आगे खडे़ हो गए। दो गोलियां चली जिसमें उन दोनों युवकों की मौत हो गई और भीतर से खोखला हो चुका साम्यवाद खत्म हो गया।

हाल ही में भारत में हुए जन-आंदोलनों को आप किस परिप्रेक्ष्य में देखते हैं?

जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की स्मृति एक बार फिर ताजा हो गई। हाल ही में अन्ना व बाबा रामदेव का आंदोलन भी भ्रष्टाचार के विरोध में था। जयप्रकाश नारायण से लेकर अन्ना के आंदोलन तक ने लोकतंत्र की मजबूती का परिचय दिया। इसका यही अर्थ है कि भारत में लोकतंत्र की मशाल जलती रहेगी और जब भी तानाशाही दिखाने की कोशिश की जाएगी तो इस तरह के आंदोलन होते रहेंगे।

वर्तमान मीडिया की कार्यप्रणाली से क्या अपेक्षा है?

वर्तमान समय में राजनीति से संबंधित सामग्री बहुत अधिक प्रस्तुत की जाती है। मेरे विचार में राजनीति और विकास को अलग रखना चाहिए। केवल राजनीति को वरीयता देना ठीक नहीं है। राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का विश्लेषण होना चाहिए। इसके अलावा समाचार-पत्रों एवं चैनलों को तथ्यपरक रिपोर्ट प्रस्तुत करने चाहिए और समाचारों में अपने विचार देने से बचना चाहिए।

भाषाई पत्रकारिता पर अंग्रेजी भाषा का क्या प्रभाव पड़ रहा है?

हिन्दी भाषा का धीरे-धीरे अंग्रेजीकरण हो रहा है। हिन्दी समाचार-पत्रों में अंग्रेजी के नाम व शब्दों का प्रयोग अब सामान्य हो गया है। समाचार-पत्रों, चैनलों व रेडियो में कई बार ऐसे अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग होता है जिनका हिन्दी शब्द नहीं मालूम होता। ऐसे में श्रोता या पाठक उसे समझ लेता है। बांग्ला व मराठी में अंग्रेजी का प्रभाव काफी कम है। हिन्दी में उर्दू का प्रभाव अधिक है जिसे देखकर प्रतीत होता है कि हिन्दी को उर्दू का दासी बना दिया गया है जबकि हिन्दी भाषा को संस्कृत की विरासत संभालनी चाहिए थी।

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में से कौन पत्रकारीय मूल्यों को बेहतर तरीके से निभा पा रहा है?

प्रिंट मीडिया इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से बेहतर है। प्रतिस्पर्धा की होड़ में कभी-कभी चैनल देखकर ऐसा लगता है कि वह जबरदस्ती बोल रहे हैं, हालाकि समाचार चैनलों पर अनेक परिचर्चाओं का स्तर अच्छा होता है।

मीडिया के क्षेत्र में आने वाले नवागन्तुकों को क्या संदेश देना चाहेंगे?

पत्रकारिता को पेशा न मानकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए। पत्रकारिता का अर्थ समाजसेवा है। पत्रकार को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभानी चाहिए।

चौथे स्तम्भ की नई पहल: मोबाइल पत्रकारिता



सूचना क्रांति के क्षेत्र में भारत तीव्र गति से विकास कर रहा है जिसका मीडिया पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा है। भारतीय मीडिया ने अपना काम प्रिंट मीडिया से शुरू किया था जो धीरे-धीरे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ओर बढ़ा। खबरों के प्रस्तुतिकरण का नवीन स्वरूप अब इंटरनेट पर भी मिलने लगा है, जिसे वेब पत्रकारिता का नाम दिया गया है। सूचना क्रांति का विस्तार इतनी तीव्रता के साथ अग्रसरित हुआ है कि वर्तमान समय में मीडिया ने वेब पत्रकारिता से बढ़ते हुए मोबाइल पत्रकारिता में अपना कदम रखा है।

मोबाइल के प्रयोगकर्ता आज दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं। दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के अनुसार वर्ष 2010 तक कुल 58 करोड़ 43 लाख 20 हजार मोबाइल प्रयोग में थे, अनुमानतः इस संख्या में दिन प्रतिदिन वृद्धि ही हो रही है। भारत में मोबाइल का प्रचलन तेजी से होने का ही परिणाम है कि भारतीय पत्रकारिता में आज मोबाइल सूचना सम्प्रेषण का सबसे तीव्र माध्यम हो गया है। प्रतिस्पर्धा की होड़ में मोबाइल सेवा प्रदाता बहुत कम दामों पर अपने उपभोक्ताओं को इंटरनेट सेवा उपलब्ध करा रहे हैं। हाल ही में मोबाइल पर इंटरनेट का प्रयोग तेजी से बढ़ा है। इस सुविधा का लाभ लेकर मोबाइल प्रयोगकर्ता किसी भी समय इंटरनेट पर विभिन्न साइट्स के माध्यम से समाचार पढ़ सकते हैं।

इसके अलावा मोबाइल सेवा प्रदाता अपने उपभोक्ताओं को एसएमएस के जरिए भी समाचार पहुंचाते हैं। इसके लिए उन्होंने अलग से समाचार विभाग बनाया हुआ है जिसके माध्यम से समाचार सीधे प्रयोगकर्ताओं के मोबाइल में पहुंच जाता है। इस विभाग में मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियों ने प्रशिक्षित पत्रकारों की नियुक्ति भी शुरू कर दी है। यही पत्रकार समाचार जुटाने का कार्य करते हैं। इसके अलावा यहां समाचार एजेन्सियों के माध्यम से भी समचारों का संकलन किया जाता है। मोबाइल पर समाचार उपलब्ध कराने के क्रम में सेवा प्रदाताओं ने एक बड़ी उपलब्धि भी हासिल की है। मोबाइल पर अभी तक अंग्रेजी भाषा में ही समाचार उपलब्ध कराया जाता था लेकिन भारत में अधिकतर हिन्दी भाषी लोग होने के कारण मोबाइल सेवा प्रदाता हिन्दी में भी समाचार मुहैया कराने का प्रयास कर रहे हैं।

मोबाइल पत्रकारिता के कारण पत्रकारिता के क्षेत्र में रोजगार के अवसर भी बढ़े हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाले नवागंतुकों को रोजगार के लिए अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। मोबाइल पत्रकारिता के विस्तार के साथ ही इस क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर भी पैदा होंगे।

सूचना क्रांति के विस्तार के साथ समाचार तेजी से पहुंचाने की होड़ भी बढ़ गई है। कोई भी घटना घटने का समाचार पलक झपकते ही लोगों तक पहुंच जाता है। ऐसे में सूचनाओं के यह नए साधन तीव्र गति से समाचार संप्रेषित कर रहे हैं। ब्रेकिंग न्यूजके दौर में समाचार ब्रेक करने का सबसे पहला साधन मोबाइल बन गया है। इसके माध्यम से ही सूचना पाकर इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया समाचार जुटाने का कार्य करते हैं। हालाकि इसके कुछ नुकसान भी हैं। समाचार सबसे पहले पहुंचाने की होड़ में कभी-कभी बिना तथ्यों की पुष्टि के ही समाचार संप्रेषित कर दिया जाता है और प्रयोगकर्ताओं के मोबाइल पर भ्रामक खबरें भी आ जाती हैं जिससे इन माध्यमों की विश्वसनीयता पर भी प्रश्न उठता है। पत्रकारिता की बुनियाद विश्वसनीयता ही है। माध्यम चाहे कोई भी हो, समाचार तथ्यों की पुष्टि करके ही संप्रेषित किया जाना चाहिए।

जनसंचार के इस नव-इलेक्ट्रॉनिक माध्यम की पहुंच उच्च वर्ग से लेकर निम्न वर्ग तक है। आज गांव-गांव तक मोबाइल फोन जा चुके हैं और दिन पर दिन इसका विस्तार हो रहा है। मोबाइल ऐसे क्षेत्रों में पहुंच चुका है जहां अभी तक जनसंचार के अन्य माध्यम जैसे समाचार-पत्र, टेलीविजन व रेडियो की पहुंच अपवादस्वरूप है। ऐसे में समाचार व नई जानकारियां पहुंचाने के लिए मोबाइल का महत्व अत्यधिक बढ़ जाता है। इसके जरिए दूर-दराज क्षेत्रों में महत्वपूर्ण जानकारियां पहुंचाकर विकास की गति को तीव्र किया जा सकता है।

Tuesday, October 11, 2011

गजल अनाथ हो गई…


चिट्ठी न कोई संदेश जाने वो कौन सा देश जहां तुम चले गए… इस गीत को अपने सुरों में पिरोने वाले गजल सम्राट जगजीत सिंह जी अपने करोड़ों प्रशंसकों को छोड़ चले गए हैं। विश्व में अपनी गजल गायकी का लोहा मनवाने वाले जगजीत जी का 10 अक्टूबर 2011 को ब्रेन हैमरेज के कारण निधन हो गया जिससे विश्व में उनके करोड़ों प्रशंसक आहत है।

गजल गायकी के प्रणेता जगजीत सिंह जी का जन्म 8 फरवरी 1941 को राजस्थान के श्रीगंगानगर में हुआ। संगीत की विरासत बचपन में उन्हें अपने पिता से मिली, जिसके बाद पंडित छग्नलाल शर्मा के सान्निध्य में उन्होंने शास्त्रीय संगीत की विधा प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने सैनिया घराने के उस्ताद जमाल खान साहब से ख्याल, ठुमरी और ध्रुपद की बारीकियां सीखी। उनके पिता उन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवा में भेजना चाहते थे लेकिन जगजीत जी अपने सुरों का जादू बिखेरना चाहते थे। कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए गायकी की ओर उनका रूझान बढ़ा और वह वर्ष 1965 में मुंबई चले आए। रोजी रोटी के लिए वह शुरूआत में जिंगल्स व शादी समारोहों में गाया करते थे। वर्ष 1967 में उनकी मुलाकात चित्रा जी से हुई और दो साल बाद इन दोनों की शादी हो गई।

जगजीत सिंह जी की पहली एल्बम ‘द अनफोर्गेटेबल’ ने काफी प्रसिद्धि पाई। शायरों की महफिल में सजने वाली गजल को जगजीत सिंह जी ने अपने सुरों में पिरोकर आम आदमी से जोड़ा जिसे उनके प्रशंसकों ने हाथों-हाथ लिया। जगजीत सिंह जी और चित्रा जी साथ में गजल गाया करते थे। ‘हम तो है परदेस में’, ‘मिट्टी दा बावा’, ‘ये तेरा घर ये मेरा घर’ जैसे कई प्रसिद्ध गीतों ने साबित कर दिया कि जगजीत साहब और चित्रा जी की जोड़ी गायकी में भी जमती है लेकिन जल्द ही इनके जीवन में एक ऐसा मोड़ आया जिसने इन दोनों के जीवन को झकझोर कर रख दिया। वर्ष 1990 में जगजीत जी और चित्रा जी के बेटे विवेक की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई। बेटे की मौत के सन्नाटे में चित्रा जी ने गायकी को हमेशा के लिए अलविदा कर दिया लेकिन जगजीत जी ने गजलों से अपना नाता नहीं तोड़ा और अपने आंसुओं को सुरों में पिरोते रहें। उनका यह दर्द उनकी गायकी में बखूबी झलकता था। ‘ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो’, ‘शाम से आंख में नमी सी है’, ‘तुम चले जाओगे तो सोचेंगे, हमने क्या खोया हमने क्या पाया’, ‘चिट्ठी न कोई संदेश’ जैसी गजलों में दर्द को महसूस किया जा सकता है।

‘होठो से छू लो तुम’, ‘बात निकलेगी तो दूर तलक’, ‘कल चैदहवी की रात’, ‘सरकती जाए है रूख से नकाब’, ‘झुकी झुकी सी नज़र’, ‘तेरा चेहरा’ जैसी गजलों को उन्होंने अपने भावों में सराबोर करते हुए इस तरह सुरों में पिरोया कि यह गजलें हमेशा के लिए अमर हो गई। जगजीत साहब ने हिंदी के अलावा पंजाबी, बांग्ला, उर्दू, गुजराती, सिंधी और नेपाली में भी गीत-गजल गाए हैं। कला के क्षेत्र में उनके इस अमूल्य योगदान के लिए वर्ष 2003 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।

जगजीत सिंह जी ने लोगों को न केवल गजलों से परिचित कराया, बल्कि गालिब, मीर, मजाज, जोश और फिराक जैसे शायरों से भी रूबरू कराया। लाइव कन्सर्ट में तो जगजीत सिंह जी अपनी गजल को नया आंदाज दे देते थे। अपनी ही गजल को अलग-अलग सुरों में पिरोकर व बीच में शायरों की पंक्तियां डालकर श्रोताओं को मुग्ध कर लेते थे। सितार, तबला, वॉयलिन, बासुरी जैसे साजों के साथ उनकी गजलों की जुगलबन्दी से पूरा स्टेडियम गूंज उठता था। उन्होंने गजलों के साथ कई प्रयोग किए। उन्होंने गजलों को जब फिल्मी गीतों का रूप देना शुरू किया तो आम आदमी ने गजलों में दिलचस्पी दिखानी शुरू की। इससे कई गजल गायकों ने आहत होकर उन पर आरोप लगाने शुरू कर दिए कि उन्होंने गजलों के वास्तविक रूप से छेड़छाड़ की है। इसके जवाब में जगजीत जी ने केवल इतना ही कहा कि उन्होंने प्रस्तुति में थोड़े बदलाव जरूर किए है, लेकिन शब्दों से छेड़छाड़ बहुत कम है। दरअसल जगजीत जी की गायकी से पहले गजल की ओर बहुत कम ही लोगों का रूझान था, लेकिन जगजीत जी की गजल शैली ने आम लोगों के दिलों को छू लिया। उनकी गजलों को सुनने वाले लोग सोचने पर मजबूर हो जाते हैं और भावविभोर होकर गजल से व्यक्तिगत जुड़ाव महसूस करते हैं।

जगजीत सिंह जी ने 80 से ज्यादा एल्बमों में अपनी आवाज दी है। वह गजलों के साथ हमेशा नए प्रयोग करते रहते थे। उनका कहना था कि ‘‘कल क्या गाया यह भूल जाओ, कल क्या गाना है उसके बारे में सोचो’’ वह रोज अलग गायकी की ओर अधिक बल देते थे।

जगजीत सिंह जी ने अपनी आवाज के जादू में अल्फाजों को अपने सुरों में इस तरह पिरोया है कि उनकी गजलें हमेशा के लिए अमर हो गई है। गजल गायकी को नया आयाम देने वाले जगजीत साहब को गजल सम्राट के नाम से जाना जाने लगा। जगजीत जी के निधन से भारतीय संगीत की दुनिया को बहुत बड़ी क्षति पहुंची है। उनके जाने से संगीत की दुनिया में सन्नाटा छा गया है।

Wednesday, October 5, 2011

‘बड़े-बूढ़ों को मार दो, बच्चों को रख लो’



पाकिस्तान की सरजमीं पर हिन्दू सुरक्षित नहीं है। न ही उनको कोई सम्मान दिया जाता है और न ही उनके साथ मानवीय व्यवहार किया जाता है। पाकिस्तान में मुस्लिम कट्टरपंथियों के द्वारा किये जा रहे शोषण से तिलमिलाएं कुछ हिन्दुओं ने भारत से शरण मांगी हैं।

कट्टरपंथियों के शोषण से त्रस्त 114 हिन्दू 4 सितंबर को तीर्थयात्रा के वीजा पर भारत आए और अब वह भारत सरकार से मांग कर रहे हैं कि उन्हें भारत में शरण दी जाए। इनमें बच्चों की संख्या सबसे अधिक है और एक बच्चा कैंसर से भी पीड़ित है। यह लोग मजनू का टीला स्थित बाबा धुणीदास डेरे पर ठहरे हुए हैं। उनका कहना है कि पाकिस्तान में हिन्दुओं को न तो सरकार की ओर से कोई सुविधाएं मुहैया कराई जा रही हैं और न ही उनको अपने धार्मिक अनुष्ठान ही करने की इजाजत है। पाकिस्तानी कट्टरपंथी हिन्दुओं को घृणा की नजरों से देखते हैं और उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है। हिन्दुओं के बच्चों को वहां शिक्षा नहीं दी जाती। रोजगार के अवसर वहां केवल मुस्लिमों के लिए सुरक्षित है। महिलाओं का तो वहां घर से बाहर निकलना ही मुश्किल है क्योंकि वह कट्टरपंथियों की गलत नजरों का शिकार हो जाती हैं।

हैदराबाद के सिख प्रांत से आए कृष्ण बादरी ने बताया कि ‘‘पाकिस्तान में हमारा धर्म नहीं रहा और हम अपना धर्म बचाने के लिए भारत आए हैं। अगर हमारे यहां किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसे श्मशान घाट में जलाने नहीं दिया जाता। हम अपने त्यौहार जैसे होली, दीवाली खुलकर नहीं मना सकते। कट्टरवादी मुस्लिम गाय काटते हैं और मंदिरों में फेंक देते हैं। हिन्दुओं की आर्थिक स्थिति भी बहुत खराब है क्योंकि वह हमें नौकरी नहीं देते और इस्लाम कबूलने के लिए दबाव डालते हैं। वहां के कट्टरवादी मुस्लिम हिन्दू धर्म को न जीने देते है और न ही आगे बढ़ने देते हैं। इसीलिए हम पाकिस्तान छोड़कर भारत माता की शरण में आए हैं।’’ पाकिस्तानी कट्टरपंथियों के शोषण से तिलमिलाएं मिठुमल ने कहा कि हम पाकिस्तान में नहीं रह सकते, वहां हमारे बच्चों का भविष्य नहीं है। यदि भारत में कोई हम पर विश्वास नहीं करता तो उनसे यही बात कहना चाहूंगा कि हम बड़े-बूढ़ो को मार दो लेकिन हमारे बच्चों को रख लो। कम से कम उनका भविष्य तो संवर जाएगा।’’

पाकिस्तान से आई रूकमणि ने बताया कि ‘‘पाकिस्तान में महिलाओं का बाहर निकलना मुश्किल है। पाकिस्तानी कट्टरपंथी हमारे साथ गलत व्यवहार करते हैं, छेड़छाड़ करते हैं। वह कहते हैं कि हमारे कुंभ की बन जा और हमें धर्म परिवर्तन के लिए बोलते हैं। महिलाओं के बाहर निकलने पर कट्टरवादी मुस्लिम जबरन बलात्कार करके धर्म परिवर्तन करा लेते हैं। हाल ही में वहां एक 8 साल की लड़की का 4 मुसलमानों ने बलात्कार किया। पुलिस प्रशासन हमारा केस भी दर्ज नहीं करता। बच्चों को विद्यालयों में इस्लाम की शिक्षा दी जाती है। गायत्री मंत्र पढ़ते हैं तो वो कलमा पढ़ने को कहते हैं। विद्यालयों में शिक्षा उर्दू एवं अंग्रेजी में दी जाती है, हिन्दी में नहीं।’’ बिरशा शहर के गुरूमुख ने बताया- ‘‘हमारे छोटे बच्चों को शिक्षा नहीं मिलती। इस्लामियत की शिक्षा के लिए मदरसे हैं लेकिन हिन्दू धर्म की शिक्षा के लिए कुछ नहीं है। वह हमें गालियां दे देते हैं तो हमें बर्दाश्त करनी पड़ती है लेकिन अगर हम उनको गालियां दे दें तो वो हमें जान से मार देते हैं। मुस्लिमों ने मंदिरों में नाई की व जूतों की दुकान खोल रखी है।’’

पाकिस्तान से आए इन हिन्दुओं की तरफ से मजनू का टीला के सेवादार गंगाराम ने भारत के गृहमंत्री, राष्ट्रपति और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आयुक्त से आवेदन किया है कि वह इन्हें भारत में स्थायी रूप से रहने की अनुमति दें। इनके वकील आघा जिलानी ने बताया कि उन्होंने जैसलमर हाउस में वीजा अवधि बढ़ाने की मांग की है। पहले आवेदन को वहां से खारिज कर दिया गया था लेकिन वीजा बढ़ाने के लिए दोबारा आवेदन किया गया है। मामला अभी विचाराधीन है।

डेरे के सेवादार बसंत रामधारी ने बताया ‘‘डेरे में अभी गद्दी पर बाबा राजकुमार विराजमान हैं। सन 1980 से हमारे गुरू जीवनदास जी पाकिस्तान जाया करते थे। 2005 में उनके देहान्त के बाद से राजकुमार जी साल दर साल पाकिस्तान जाया करते हैं। वहां इन लोगों ने अपनी समस्याएं बाबा जी को बताई तो उन्होंने इन लोगों को भारत आने की सलाह दी।’’
पाकिस्तान से आए इन हिन्दुओं के वीजा की अंतिम तिथि 8 अक्टूबर तक है। वीजा अवधि न बढ़ाए जाने की स्थिति में इन हिन्दुओं का कहना है कि हम मरना पसंद करेंगे लेकिन पाकिस्तान नहीं लौटेंगे।