Saturday, February 25, 2012

सूचना का माध्यम ‘पश्चिमी गेटकीपर्स’ - विजय क्रान्ति

भारतीय पत्रकारिता में समय-समय पर व्यापक परिवर्तन आए हैं जिनमें कुछ सकारात्मक भीहैं तो कुछ नकारात्मक भी। इसके साथ ही डिजिटलाइजेशन के कारण आज मीडिया की सूरत ही बदल चुकी है। पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं पर वरिष्ठ पत्रकार विजय क्रान्ति से बातचीत के कुछ अंश:


पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका आगमन कैसे हुआ?

मै किरोड़ीमल कॉलेज में विज्ञान का छात्र था। मेरी लिखने में काफी रूचि थी। कॉलेज की साहित्यिक पत्रिकाओं व अन्य पत्रिकाओं में मैं लिखा करता था। कॉलेज की पत्रिका ने पहले मेरी लिखने में रूचि बढ़ाई और फिर मुझे महसूस हुआ कि मैं पत्रकार भी बन सकता हूं। उस दौर में लिखने की शैली विकसित करने का जो मौका मिला वो बहुत मजेदार था और कॉलेज खत्म होते ही मैंने निर्णय लिया कि मुझे पत्रकार बनना चाहिए।

पत्रकारिता के दौरान आपके कुछ रोचक अनुभव?

एक बार मेरी पिटाई हुई थी जो अभी तक याद है। एक बार एक स्टोरी के लिए मैं अजमेर गया था। उन्हीं दिनों वहां एक और स्टोरी मिल गई। वहां एक बहुत बड़े सैक्स रैकेट का खुलासा हुआ था, जिसमें एक राजनीतिक दल का नेता भी शामिल था। उसकी अदालत में पेशी के दिन हम यह स्टोरी कवर करने के लिए पहुंच गए। पेशी के लिए वह गाड़ी में आने ही वाला था कि यूथ कांग्रेस के नेताओं ने घोषणा कर दी कि ‘‘कोई भी अखबार वाला उसकी फोटो नहीं खीचेगा और जो खीचेगा उसके हाथ पैर तोड़ देंगे।’’ मैं आगे बढ़ा और कहा कि ‘‘जो करना है कर लो, हम अपना काम करके रहेंगे।’’ जो ही मैंने कैमरा उठाया तो किसी ने मेरी गर्दन पकड़ ली, किसी ने सिर पर मारा। अगले दिन अखबार में खबर छप गई कि दिल्ली के पत्रकार पिट गए और मेरा नाम भी छप गया। इस प्रकार मेरे घर के लोगों को पता चला तो वह परेशान हो गए, फिर बाद में मैंने सूचना दी कि मैं ठीक हूं। इस तरह की घटना पत्रकारिता में आम है। उस समय तो बड़ा बुरा लगता है लेकिन बाद में सुनने सुनाने में काफी मजा आता है। एक और बड़ी रोचक घटना थी। जब 1992 में भारत सरकार और चीन सरकार ने भारत-तिब्बत सीमा, बॉर्डर ट्रेड के लिए दोबारा खोली तो हमारी टीम को वहां स्टोरी के लिए जाना था। मेरे सहयोगी पत्रकारों ने वहां जाने से मना कर दिया क्योंकि उन्हें पता चला कि एक दिन के लिए पैदल चलना पड़ेगा। चूंकि तिब्बत में मेरी रूचि थी तो मैंने जाने का निर्णय लिया और पता चला कि एक दिन नहीं बल्कि छह दिन पैदल चलना पड़ेगा। मैं धरसुड़ा से लेकर ठाणीदार, बाॅर्डर कुंजी होते हुए लिपुलेन तक पैदल गया। इस बीच जिस खच्चर पर मैंने अपना बैग रखा था वो खो गया। तो 5 दिन तक बिना कपड़े बदले मैं पैदल चला। हालत ये थी कि कपड़ों में बदबू आने लगी थी, फिर भी रोज पैदल चलना था। खाने को कुछ मिल नहीं रहा था। सोने के लिए जगह मिली जहां खच्चर सोते हैं। बीच में केवल ढाई फीट की दीवार थी जिसके एक तरफ खच्चर सो रहा था और एक तरफ मैं। बीच-बीच में जब उसकी दुम लगती थी तो नींद खुल जाती थी। 5-6 दिन बाद वो खच्चर मिला जिस पर मेरा बैग था और फिर मैंने कपड़े बदले।

वर्तमान पत्रकारिता के दौर में आप क्या बदलाव देखते हैं?

पत्रकारिता में मैं 1970-71 में आया था। तब से लेकर अब तक पत्रकारिता में बहुत बदलाव आए हैं जिनमें कुछ अच्छे हैं तो कुछ दुर्भाग्यपूर्ण भी हैं। सकारात्मक बदलाव की बात करें तो आज पत्रकारिता के प्रशिक्षण केन्द्रों में बढ़ोतरी हुई है जिसके कारण विद्यार्थियों को अच्छा प्रशिक्षण मिल रहा है। जबकि हमारे समय में पत्रकारिता के बहुत ज्यादा प्रशिक्षण केन्द्र नहीं थे। इसके साथ ही मुद्रण तकनीक में भी डिजिटिलाइजेशन के कारण अखबारों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। पहले हिन्दी अखबारों के एक या दो संस्करण आते थे और आज एक ही अखबार के 18-19 संस्करण आते हैं जिसके कारण पत्रकारों के लिए रोजगार के अवसर बढ़े हैं। समाचार पत्रों के प्रसारण में भी वृद्धि हुई है। दूसरी ओर नकारात्मक बदलाव यह है कि मीडिया का दुरूपयोग करने के लिए पश्चिमी हितों की जो घुसपैंठ है उनके लिए संभावनाएं काफी बढ़ गई हैं। मीडिया में यह बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ है। मीडिया में आज जो कुछ भी आ रहा है उसमें से कई सामग्रियां ऐसी होती हैं जिनको आम जन के समक्ष प्रस्तुत करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। आज यह मीडिया के लिए चुनौती बन गया है।

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में से कौन पत्रकारीय मूल्यों को बेहतर तरीके से निभा पा रहा है?

मेरा मानना है कि अन्तर प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में नहीं, बल्कि व्यक्तिगत स्तर पर है। अच्छे और समझदार पत्रकार, चाहे वह प्रिंट में हो या इलेक्ट्रॉनिक में अपना काम बखूबी निभा रहे हैं, लेकिन कुछ पत्रकार मीडिया का दुरूपयोग भी कर रहे हैं। अभी हाल ही में राडिया केस हुआ तो टेप हर जगह पहुंची। पता चला कि अखबारों के संपादक मीडिया की एजेंट से डिक्टेशन लेकर लिख रहे हैं। उस समय एक अखबार का संपादक राडिया से डिक्टेशन लेकर अपना लेख लिख रहा था जो बड़ी शर्मनाक बात है, लेकिन तकनीक में विस्तार होने के कारण ही ऐसे लोगों पर से पर्दा उठने लगा है, जो अच्छा है। इस प्रकार मीडिया में यह परिवर्तन थोड़ा शर्मनाक है, किन्तु रोचक है।

फोटो पत्रकारिता में आप क्या बदलाव देखते हैं?

फोटो पत्रकारिता आज बहुत गतिशील हो गई है, खासतौर से डिजिटिलाइजेशन के बाद। पहले किसी खबर से संबंधित फोटो छपने में काफी समय लग जाता था। अगर खबर सुदूर क्षेत्र की है तो फोटो फिल्म को कार्यालय भेजने और उसका प्रिंट प्राप्त करने में 2-3 दिन का समय लग जाता था, लेकिन आज फोटो डिजिटल होने के कारण ईमेल से तुरन्त भेज दी जाती है। इसने एक ओर तो फोटो पत्रकार की चुनौतियों को बढ़़ा दिया है, तो वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र में संभावनाओं की भी बढ़ोतरी हुई है।

आपकी सबसे यादगार फोटो प्रदर्शनी कौन सी है?

मुंबई स्थिति यूनिवर्सिटी फॉर वुमन में तिब्बतन वुमन एसोसिएशनने एक फेस्टिवल आयोजित किया था जिसमें मैंने भी एक फोटो प्रदर्शनी लगाई थी। उसमें मैंने निर्वासन में रह रही तिब्बती महिलाओं को प्रदर्शित किया था। प्रदर्शनी के चैथे दिन चीनी दूतावास से एक जनरल आए और एक फोटो को देखकर भड़कते हुए उन्होंने उसे हटाने को कहा। उन्होंने कॉलेज की वाइस चांसलर पर दबाव बनाकर वो फोटो हटवा दी। उस फोटो का कसूर यह था कि उसमें संयुक्त राष्ट्र के सामने दो तिब्बती महिलाएं बैठी हुई आंख बंद कर एवं हाथ जोड़कर शांतिपूर्ण ढंग से आजादी की मांग कर रही थीं। उनमें से एक के हाथ में प्लैकर्ड था जिस पर लिखा था चाइना क्विट तिब्बत। वह जनरल उस फोटो को देख भड़क कर बोल रहे थे वाई शुड चाइना क्विट तिब्बत, तिब्बत इज ए पार्ट आॅफ चाइना, हू इज दिस बास्टर्ड फोटोग्राफर। इससे यह हुआ कि चार दिन यह प्रदर्शनी चली और यह फोटो दुनियाभर में प्रख्यात हो गई। इस फोटो से मैं काफी प्रभावित था क्योंकि इसमें अपने देश पर कब्जा होने के बाद भी दो महिलाएं आंखें बंद करके शांतिपूर्ण ढंग से प्रार्थना कर रही थीं। इसीलिए मैं यह फोटो अपनी प्रदर्शनी में पहली या आखिरी फोटो के तौर पर प्रदर्शित करता हूं।

तिब्बती मामले को लेकर मुख्य धारा की मीडिया का क्या रूख है?

मुख्य धारा का मीडिया वैसे तो सहानुभूति रखता है, लेकिन यह भी सच है कि तिब्बत को पूरी दुनिया की मीडिया में जितना स्थान मिला है उतना भारतीय मीडिया में नहीं मिला। भारत और तिब्बत के हित कितने समान है, इसको लेकर भारतीय मीडिया उदासीन है। जितने भरोसे से जागरूक मीडिया को बोलना चाहिए वह भारतीय मीडिया नहीं बोल पा रहा है। मेरे विचार से भारतीय मीडिया को तिब्बती मामले को अपने प्राथमिक मामलों में शामिल करना चाहिए क्योंकि कई काम जो सरकार नहीं कर सकती, वो मीडिया और जनता कर सकती है।

वर्तमान समय में भारतीय मीडिया में अन्तर्राष्ट्रीय कवरेज से क्या आप संतुष्ट हैं?

भारत में अंतर्राष्ट्रीय खबरें आज भी दुर्भाग्य से सूचना के पश्चिमी गेटकीपर्सकही जाने वाली चार बड़ी एजेन्सियों से ही प्राप्त हो रही हैं। इसके कारण जो भी मुद्दें पश्चिम के हित में हैं, वो दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए उन्हें इराक व ईरान के मुद्दें बड़े लगते हैं जबकि हमारे लिए यह मुद्दें बड़े नहीं है, लेकिन भारतीय मीडिया फिर भी इसे दिखाता रहता है क्योंकि दुनियाभर की खबरें यही एजेन्सियां नियंत्रित करती हैं। इस प्रकार भारतीय मीडिया उनके लिए एक उपकरण बनकर रह जाता है। ऐसी स्थिति में भारतीय अखबारों व एजेन्सियों को भी अपने ब्यूरो दुनियाभर में फैलाने चाहिए जिससे भारतीय नजरिए से अंतर्राष्ट्रीय खबरें देश में आए।

आज आम आदमी की नजरों से मीडिया का जो महत्व घटा है उसके लिए क्या किया जाना चाहिए?

पिछले कुछ समय में मीडिया में काफी शर्मनाक मामलें सामने आए हैं। मीडिया का आज जो महत्व घटा है उसके पीछे मीडिया की ही गलती है। आज कई महत्वपूर्ण मुद्दें व बड़ी खबरें मीडिया में गौण होकर रह जाती हैं जबकि सनसनी के कारण बचकानी खबरें सामने आती हैं। आज मीडिया की प्राथमिकताएं खिसक गई हैं और यह तब तक खिसकती रहेगी जब तक मीडिया सनसनी पैदा करने वाली खबरें बनाता रहेगा। ऐसी हालत में मीडिया अपना बचाव नहीं कर पाएगा। इसीलिए मीडिया को अपनी प्राथमिकताओं में सुधार करना चाहिए तभी उसे सम्मान भी मिलेगा।

वर्तमान समय में मीडियाकर्मियों को किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है?

मीडिया पर आज कई तरह का दबाव है जो बाहरी भी है और भीतरी भी। बाहरी दबाव यह है कि आज जितने भी राजनीतिक दल, कार्पोरेट्स या मीडिया में हित रखने वाले अन्य दल हैं, वह मीडिया का अपने ढंग से प्रयोग करना चाहते हैं और उनके पास इसके लिए संसाधन भी है जिसके कारण वह दबाव बना सकते हैं। इसके अलावा आंतरिक दबाव मीडिया मालिकों का है। मीडिया का विस्तार इतना ज्यादा हुआ है कि आज मीडिया का स्वामित्व गंभीर लोगों के हाथों में नहीं है। एक समय था जब टाइम्स आॅफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स समेत बाकी सब अखबारों का स्वामित्व इज्जतदार व गंभीर लोगों के हाथों में था लेकिन आज प्रोपर्टी डीलर्स व माफियाओं ने अपने चैनल खोल रखे हैं। इस प्रकार जिन मूल्यों के कारण वह अमीर बने हैं उन्हें वह चैनल में भी लेकर आते हैं। एक और ध्यान देने वाली बात है कि जिस तरह से व्यवस्था बदल रही है उसके अनुसार मीडिया का ट्रेड यूनियन बहुत कमजोर हुआ है। ट्रेड यूनियन केवल वेतन बढ़ाने या घटाने के लिए ही नहीं बल्कि मीडिया पर एक नैतिक दबाव भी बनाए रखता था। इस प्रकार मीडियाकर्मियों को नैतिक मूल्य बनाए रखने, आंतरिक व बाहरी दबावों को झेलने के लिए ट्रेड यूनियन का जो समर्थन था, वह खत्म हो गया है। एक परिवर्तन प्रतिस्पर्धा बढ़ने के कारण भी हुआ है। आज टीआरपी के फेर में सेंसेशनलिज्म हावी हो रहा है जिसके कारण इस तरह की सोच रखने वाले पत्रकार मालिकों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण हो रहे हैं। यह सब आज पत्रकारिता में दुर्भाग्यपूर्ण है।

मीडिया में आने वाले नवागंतुकों को आप क्या संदेश देना चाहते हैं?

मीडिया में जो नए लोग आ रहे हैं उनके लिए सलाह है कि वह ग्लैमर को देखकर मीडिया में न आए। मीडिया की जो जिम्मेदारियां हैं, खतरें हैं, तनाव हंै, उन सबको झेलने की क्षमता उनके अंदर हो और इन सबकों झेलते हुए भी वह जिम्मेदारी से अपना काम निभा सकें। यह एक चुनौती है। मीडिया में अच्छा काम करने वालों के लिए संभावनाएं बहुत है लेकिन आपमें सम्मान, समझदारी व जिम्मेदारी के साथ खड़े रहने की कितनी ताकत है, यह तय करेगी कि आप कितने सफल होंगे।

Friday, February 24, 2012

पंचायती राज से रूबरू नहीं है मीडिया - श्रीपाल जैन

पंचायतों को लेकर मीडिया अक्सर भ्रष्टाचार, सरपंच की हत्या, मारपीट व रेप जैसी खबरों का ही प्रसारण करता है, जबकि पंचायती राज से समाज में कुछ सकारात्मक बदलाव भी आए हैं। पत्रकारिता के वर्तमान दौर को लेकर पंचायती राज के संपादक श्रीपाल जैन से बातचीत के कुछ अंश:

पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका आगमन कैसे हुआ?

उदयपुर से जब मैं पीएचडी कर रहा था तो मैं दैनिक हिन्दुस्तान, दिनमान, धर्मयुग जैसे अखबारों में लिखता रहता था। 1981 में मैंने हिन्दुस्तान में उप संपादक के पद पर कार्यभार संभाला। उस समय मुझे पत्रकारिता व लैक्चरर में से किसी एक विकल्प को चुनना था। दिल्ली का एक आकर्षण होने के कारण मैंने पत्रकारिता को चुना। हिन्दुस्तान में मैंने सहायक संपादक और वरिष्ठ सहायक संपादक के पद पर कार्य किया। वर्ष 2008 में मैंने पंचायती राज पत्रिका में संपादक का पद संभाला।

पत्रकारिता के दौरान आपके क्या रोचक अनुभव रहे?

पत्रकारिता के दौरान मेरे दो रोचक अनुभव रहे। शेख अब्दुल्ला जब बीमार चल रहे थे तो हिन्दुस्तान के संपादकीय पृष्ठ पर उनके उत्तराधिकारी को लेकर एक लेख जा रहा था। रात 1 बजे के करीब खबर आई कि उनका निधन हो गया। उस समय कई संस्करण जा चुके थे लेकिन दिल्ली के लिए जो संस्करण जा रहा था उसमें मैंने उस लेख को थोड़ा सा बदल दिया। उसके अगले दिन मुझे और मेरे साथियों को सराहना पत्र दिया गया। दूसरा अनुभव था कि एक दिन नाइट शिफ्ट के दौरान राजनीतिक विषय पर एक लीड बनी हुई थी। करीब पौने दो बजे खबर आई कि सलमान रूश्दी के खिलाफ अयातुल्लाह खुमैनी ने मौत का फतवा जारी कर दिया है। मैंने पहली वाली लीड खबर को नीचे करके इस खबर को लीड बना दिया जिसके लिए संपादक ने अगले दिन मेरी सराहना की।

वर्तमान पत्रकारिता के दौर में आप क्या परिवर्तन देखते हैं?

पत्रकारिता के क्षेत्र में तीन स्तर पर परिवर्तन आए हैं। पहला विषय वस्तु, दूसरा प्रस्तुतीकरण और तीसरा साधनों के स्तर पर परिवर्तन आया है। विषयवस्तु के स्तर पर देखा जाए तो आज बॉलीवुड, ब्यूटी और फैशन का आवश्यकता से अधिक कवरेज बढ़ गया है। इसके अलावा आर्थिक विषयों का भी कवरेज बहुत बढ़ गया है। कभी-कभी तो कंपनियों की तिमाही रिपोर्ट ही पहले पेज पर लगा दी जाती है, विशेषकर अंग्रेजी अखबारों में। इन सबके कारण मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग का कवरेज अधिक बढ़ गया है और निम्न वर्ग जैसे किसान, मजदूर व आम आदमी के मुद्दों को उठाने वाली ग्राम पंचायतों का कवरेज घट गया है। अंग्रेजी अखबारों में तो ग्राम पंचायतों का जिक्र तक नहीं होता। दूसरा साज सज्जा के आधार पर भी परिवर्तन आया है। आज खबरों के साथ हाईलाइटर, आकर्षक चार्ट व मैप देने का चलन बढ़ गया है जो सराहनीय है। लेकिन आज अखबारों में आर्टिस्टों की जगह डिजाइनरों ने ले ली है जिसके कारण कार्टूनिस्ट का पतन हुआ है। खबरों के प्रस्तुतीकरण के आधार पर भी परिवर्तन हुआ है। आज स्टोरी को मुहावरों व दमदार अंदाज में प्रस्तुत किया जा रहा है लेकिन खबरें संक्षिप्तीकरण से ग्रस्त होती जा रही है जिसका कारण विज्ञापन है।

पंचायती राज से क्या समाज में कुछ परिवर्तन आ रहे हैं?

पंचायती राज से समाज में दो ढंग के परिवर्तन आ रहे हैं। एक तो महिला सशक्तिकरण का सिलसिला बढ़ा है। आज देश के 12 राज्यों में 50 प्रतिशत महिला आरक्षण है। करीब 30 लाख प्रतिनिधियों में 13-14 लाख महिलाएं हैं। वहीं स्थानीय स्तर पर महिलाओं के राजनीति में आने से राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति के द्वार खुलते हैं। दूसरा, 73 और 74 संवैधानिक सुधार के बाद केन्द्र व राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं की राशि सीधा पंचायतों के खातें में जा रही है। पहले यह राशि नौकरशाहों के पास जाती थी। इससे नौकरशाहों का भ्रष्टाचार कम हुआ है लेकिन राजनीतिक भ्रष्टाचार भी बढ़ा है। कई मामलों में तो यह भी देखा गया है कि नौकरशाह व निर्वाचित प्रतिनिध मिलकर भ्रष्टाचार कर रहे हैं।

पंचायती राज पर मुख्यधारा की मीडिया का क्या रूख है?

मुख्यधारा की मीडिया पंचायती राज को अधिक कवर ही नहीं करता और स्थानीय मीडिया कवर करता भी है तो वह भ्रष्टाचार, मारपीट, सरपंच की हत्या, सरपंच द्वारा रेप, रिश्वत लेना जैसी खबरें देता है। मीडिया को पंचायती राज के बारे में ज्यादा जानकारी ही नहीं है कि पंचायती राज कार्य कैसे करता है। पंचायतों को लेकर मीडिया के पास अच्छी जानकारी नहीं है।

प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में से कौन पत्रकारीय मूल्यों को बेहतर तरीके से निभा पा रहा है?

तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो प्रिंट मीडिया ज्यादा विश्वसनीय है। लेकिन दोनों ही मीडिया आंशिक या पूर्ण रूप से एकपक्षीय होते जा रहे हैं। पत्रकारों की राजनेताओं से निकटता होती है। आज पत्रकार इस निकटता का प्रयोग धन कमाने में कर रहा है। पहले यह खाना खिलाने या डायरी देने तक ही सीमित था लेकिन राजनेताओं से निकटता के कारण आज पत्रकार कई काम करा लेता है। इसका इतना बुरा प्रभाव पड़ रहा है कि कई बार राजनेताओं के खिलाफ खबर छपती भी नहीं है।

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की रिपोर्टिंग के बारे में आपका क्या मत है? क्या आप इससे संतुष्ट हैं?

अखबारों में अंतर्राष्ट्रीय समाचारों का कवरेज घटा है और इसके स्पष्ट कारण है। एक तो जबसे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का उदय हुआ है, राजनीतिक उथल-पुथल ज्यादा होती रही है। इस उथल-पुथल के पीछे की राजनीति और इस उथल-पुथल के कारणों पर पत्रकार टिप्पणी करने लगे हैं। इससे संबंधित खबरें जा रही हैं। वहीं भ्रष्टाचार, रेप, अपराध जैसी खबरें इतनी बढ़ गई है कि अंतर्राष्ट्रीय खबरों का कवरेज कम हो रहा है। दूसरा अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर देखें तो अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर समस्याएं कम हुई है। सोवियत संघ के पराभव के बाद दुनिया बहुध्रुवीय हो गई है। चीन, भारत, ब्राजील जैसे देशों का उदय हो रहा है। आज युद्ध का दायरा भी सिमट गया है। आज युद्ध के मृतकों की संख्या 90 प्रतिशत तक कम हो गई है। इसके कारण भी कवरेज कम हो रहा है।

आज अफगानिस्तान, पाकिस्तान, मध्यपूर्व, अफ्रीका, अमेरिका में जो संघर्ष चल रहे हैं, उसको लेकर क्या भारतीय मीडिया पश्चिमी नजरिए से देखना चाहती है?

यह बात काफी हद तक सही है। हम पहले भी पश्चिमी नजरिए से देखते थे। वामपंथी नजरिए से भी देखने वाले लोग थे, लेकिन उनकी संख्या काफी कम थी। वैश्वीकरण के दौर में हम पश्चिमी देशों के बहुत नजदीक आए। इस कारण हमारा नजरिया पश्चिम के नजरिए से ही देखने का रहा है। हालांकि यह संतुलित नजरिया नहीं कहा जा सकता क्योंकि आज पश्चिम में ही वैश्वीकरण का विरोध हो रहा है। विश्व बैंक ने भी माना है कि अति उदारीकरण से स्थिति खराब भी हो सकती है।

आर्थिक पत्रकारिता पर मीडिया का क्या रूख है?

मीडिया का रूख बहुत दुर्भाग्यशाली है। मीडिया में आर्थिक मामलों की समझ रखने वाले बहुत कम लोग हैं। जबकि यह ट्रेनिंग के स्तर पर होना चाहिए। उप संपादकों, पत्रकारों को अर्थव्यवस्था संबंधी अच्छी जानकारी दी जानी चाहिए।

वर्तमान दौर में राजनीतिक पत्रकारिता पर आपकी क्या राय है?

राजनीति के क्षेत्र में खोजी पत्रकारिता बढ़ी है, लेकिन कई बार खबरें एकपक्षीय होती है। सामान्य तौर पर कहा जाता है कि पत्रकार बिक जाता है और यह सिलसिला निश्चित रूप से ज्यादा ही बढ़ा है। दूसरी ओर राजनीतिक पत्रकारिता को अधिक महत्व देने से दूसरी खबरें घटी है। आम आदमी की चुनौतियों और समस्याओं की खबरें कम जाती है।

आज मीडिया के संपादकीय पृष्ठ का ढांचा पूरी तरह से बदल गया है। इस पर आपकी क्या टिप्पणी है?

इसको दो स्तर पर देखा जा सकता है हिन्दी और अंग्रेजी समाचार पत्र। अंग्रेजी समाचार पत्र के संपादकीय पृष्ठ पर अधिकतर लेख विशेषज्ञों और विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों द्वारा लिखे जा रहे हैं। उनकी भाषा शैली ऐसी होती है जिसे आम लोगों को समझने में कठिनाई होती है। हिन्दी में भी यही परंपरा चल रही है कि विशेषज्ञ ही लिखेंगे। वह ज्यादा मेहनत करके नहीं लिखते और अधिकतर अनुवादित ही होता है। यह कार्य इतनी जल्दी होता है कि कई बार वाक्य संरचना में भी गड़बड़ हो जाती है। इस प्रकार भाषा की दृष्टि से वह ऊबऊ होते है और उसका एक सही अर्थ नहीं निकलता। अतः इसके लिए जरूरी नहीं है कि नामी विशेषज्ञों से लिखवाया जाए। थोड़ा छोटे स्तर के लेखकों से भी लिखवाना चाहिए और लेखकों के बीच प्रतिस्पर्धा कायम रखनी चाहिए।

कई बार नॉन ईश्यूज पर भी लिखा जाता है। इस पर आपकी क्या राय है?

यह भी सही बात है कि कई बार नाॅन ईश्यूज पर लिखा जा रहा है जैसे मसलन जलवायु परिवर्तन। जलवायु परिवर्तन एक हकीकत है और एक हाईप भी है। इसी प्रकार एड्स को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा था कि भारत में 50 लाख लोग एचआईवी पोजिटिव है और 10 साल बाद के आंकड़ें 25 लाख बताए गए। इस प्रकार एड्स को लेकर हाइप बना दिया गया। देव आनंद के निधन पर भी यही स्थिति देखने को मिली। निश्चित रूप से वह देश के बड़े कलाकार थे लेकिन उनको लेकर अखबारों के पेज भर दिए गए।

आमतौर पर कहा जाता है कि मीडिया से आम आदमी के मुद्दें गायब होते जा रहे हैं। क्या आप इससे सहमत हैं?

निश्चित रूप से मीडिया से आम आदमी के मुद्दें गायब होते जा रहे हैं क्योंकि भारत वर्ष में दो चीजें बहुत महंगी हो गई है। पहली शिक्षा और दूसरा स्वास्थ्य। यह गरीबों की पहुंच से बाहर हो गए हैं। वहीं शिक्षा में कैसे माफिया काम कर रहा है, आज तक मीडिया ने इसे हाईलाइट नहीं किया और स्वास्थ्य में कितनी नकली दवाएं आ रही हैं व स्वास्थ्यकर्मी कितने अनुशासन में रहते हैं, इस बारे में भी अधिक कवरेज नहीं होता। जबकि मानव विकास सूचकांक में भारत बहुत पीछे चल रहा है। इसके आधारभूत तत्वों में स्वास्थ्य और शिक्षा भी शामिल है। आज बांग्लादेश हमसे स्वास्थ्य में और श्रीलंका हमसे शिक्षा में आगे बढ़ रहा है।

मीडिया पर उठ रहे सवालिया निशानों को मद्देनजर रखते हुए क्या मीडिया पर निगरानी आवश्यक है?

मीडिया की निगरानी अति होने पर आवश्यक है। वैसे मीडिया को आत्मनियंत्रक होना चाहिए। लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो एक न एक दिन ऐसी स्थिति आ सकती है।

क्या मीडिया को लोकपाल के दायरे में लाना चाहिए?

बिल्कुल, मीडिया को लोकपाल के दायरे में लाना चाहिए। कई बार मीडिया गैर जिम्मेदारपूर्ण आचरण करता है, चाहे वह मालिक के कारण हो, संपादक के कारण हो या किसी लालच में हो।

आम लोगों की नजरों में मीडिया का स्तर जो गिर गया है, उसके लिए क्या प्रयास किए जाने चाहिए?

इसके लिए तीन स्तरों पर प्रयत्न किए जाने चाहिए। पहला, सरकार और अदालत के स्तर पर प्रयास होना चाहिए। मीडिया में अगर अपमानजनक और गलत खबर छपी तोे उसके लिए मीडिया के संबन्धित व्यक्ति पर मुकदमा चलाया जाए और उस पर दोषसिद्धि करके सजा दी जाए। यह सजा आर्थिक भी हो सकती है। दूसरा, खुद मीडिया के लोगों को आत्ममंथन करना चाहिए। तीसरे स्तर पर प्रबंधन है। मीडिया के प्रबंधकों को प्रशिक्षण पर ध्यान देने के लिए कदम उठाने चाहिए।

मीडिया से मल्टी-मीडिया बनी पत्रकारिता: बलदेव भाई

भारतीय पत्रकारिता व्यावसायिकता की दौड़ में अपने कर्तव्यों से विमुख होती जा रही है। प्रौद्योगिकी के विकास और भारी पूंजी के चलते पत्रकारिता पहले मीडिया में तब्दील हुई और अब यह मल्टी मीडिया बन गई है। मीडिया के इस बदलते स्वरूप पर पांचजन्य के संपादक बलदेव भाई से बातचीत के प्रमुख अंश:

पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका आगमन कैसे हुआ?

पत्रकारिता सामाजिक जिम्मेदारी निभाने का सबसे सार्थक माध्यम है, यह मानकर मैं इस क्षेत्र में आया। मेरे कुछ वरिष्ठ जनों का मार्गदर्शन मुझे इस क्षेत्र में मिला और मैं धीरे-धीरे पत्रकार बनता चला गया।

पत्रकारिता के क्षेत्र में आपके क्या संघर्ष रहे?

पत्रकारिता में मैं उस समय आया जब यह क्षेत्र व्यावसायिक रूप में इतना प्रचलित नहीं हुआ था। तब पत्रकार बनने के पीछे एक सामाजिक दायित्व होता था, कुछ मकसद रहता था कि इसके माध्यम से देश व समाज के लिए तथा विशेषकर उन वर्गों के लिए जिनकी आवाज सामान्यतः दबी रहती है, काम किया जा सकता है। पत्रकारिता के क्षेत्र में वह लोग ज्यादा आते थे जिनको लगता था कि सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वहन में पत्रकारिता एक सशक्त माध्यम है। उस समय दूसरे तरीके के संघर्ष थे। कम साधनों में ज्यादा काम करना पड़ना था। लोग कम थे। कई प्रकार की कठिनाइयां उठानी पड़ती थी। वेतन इतना कम था कि लोग पत्रकार बनने के लिए लालायित नहीं होते थे, जिस प्रकार से आज हैं। आज पत्रकारिता में वेतन, सुविधाएं और रूतबा बढ़ गया है। अब तो कम्प्यूटर पर सारा कार्य कर लिया जाता है, उस समय हैन्ड कम्पोजिंग का दौर था। प्रूफ पढ़ना और फिर गलतियां सुधरवाना बहुत कठिन था। उस समय प्रतिस्पर्धात्मक संघर्ष ज्यादा नहीं था लेकिन काम की प्रकृति को लेकर काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता था।

पत्रकारिता में संघर्ष के दौरान आपका कोई रोचक अनुभव?

जब मैं ग्वालियर स्वदेशमें था तो एक बार रिपोर्टिंग के लिए जा रहा था। रास्ते में इंद्रगंज थाने पर मैंने देखा कि 8-10 लोग खड़े थे। वहां एक महिला रो-रो कर थानेदार से कह रही थी कि ’’मेरी बेटी 20 दिन से गायब है, जवान है, मेरी मदद कीजिए’’। पुलिस वाले मदद करने के बजाय कह रहे थे कि वह भाग गई होगी। यह देखकर मैं बुढि़या को अपने कार्यालय ले आया। मैंने अपने क्राइम रिपोर्टर को बुलाया। बुढि़या ने बताया कि वह शहर में मजदूरी करने आई है, उसका एक पड़ोसी जो कि धनी था, उसकी बेटी पर बुरी नजर रखता था। बुढि़या ने आगे बताया कि उसी लड़के ने मेरी बेटी को उठाया है और पुलिसवालों ने उससे पैसे खाए हैं। हमने 3-4 दिन तक इस खबर को छापा जिसके बाद एसएचओ डर गया और 2 दिन में मामला सुलझ गया।

वर्तमान पत्रकारिता के दौर में आप क्या बदलाव देखते हैं?

वर्तमान में बहुत कुछ बदल गया है। पत्रकारिता पहले मीडिया बनी और अब यह मल्टीमीडिया बन गया है। सामाजिक क्षेत्र में मीडिया का प्रभाव बहुत बढ़ गया है। अब कोई चीज उसकी नजरों से अछूती नहीं रह सकती। उसका बहुत विस्तार हो गया है। मीडिया अब तकनीक पर आधारित हो गया है जिसके कारण इसकी पहुंच बहुत दूर तक हो गई है। इसके कुछ सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हैं। तकनीकी प्रभाव के कारण इसकी गति बहुत तेज हो गई है, जिसके कारण इसकी पहुंच बढ़ गई है। यह बदलाव कई दृष्टियों से सकारात्मक भी है।

क्या मीडिया अपने पत्रकारीय मूल्यों से भटक रहा है?

यह पूरी तरह से जनअवधारणा बन गई है कि पत्रकारिता की शुरूआत जिन मूल्यों व जिन सामाजिक प्रतिबद्धता के लिए और जिस राष्ट्र के नवनिर्माण के भाव को लेकर हुई, वह लुप्त हो रहे हैं। एक समय में मिशन कहा जाने वाला मीडिया अब मिशन से हट कर पूरी तरह व्यावसायिक हो गया है। यह अलग बात है कि व्यावसायिकता में दौड़ते हुए भी मीडिया कुछ काम ऐसे कर जाता है जो उस मिशन की थोड़ी संवर्द्धना करता है, लेकिन मीडिया की दृष्टि पैसा कमाना ही रहती है। स्वाधीनता आन्दोलन में मीडिया सबसे सशक्त माध्यम था। स्वाधीनता आन्दोलन के लगभग सभी नेताओं ने पत्रकारिता के माध्यम से ही जनजागृति उत्पन्न की। उस समय पत्रकारिता के साथ राष्ट्रीय भावना जुड़ी हुई थी और स्वाधीनता के बाद भी आशा जताई जा रही थी कि राष्ट्र के नवनिर्माण में भी मीडिया की भूमिका बदले हुए रूप में सामने आएगी लेकिन दुर्भाग्य से स्वाधीनता के बाद धीरे-धीरे पत्रकारिता का मिशन लुप्त होता चला गया। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कहा करते थे कि ‘‘पत्रकारिता पहले मिशन थी, फिर प्रोफेशन हुई और अब सेंसेशन हो गई।’’ अब तो पत्रकारिता सेंसेशनिज्म में लगी हुई है यानि सनसनी पैदा करके लोगों को अपनी ओर आकर्षित करना और ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना। मीडिया में अनेक विदेशी कंपनियों का पैसा लगा हुआ है जिसने मीडिया की पूरी दृष्टि बदल दी है। मीडिया अब जनता की आवाज बनने वाला सशक्त माध्यम नहीं रहा। अब तो अखबारों में होड़ रहती है कि पेज 3 को किस तरह ज्यादा से ज्यादा आकर्षक बनाया जा सकता है। जबकि भारत की 80 प्रतिशत जनसंख्या का पेज 3 से कोई लेना-देना नहीं है। मीडिया अभिजात्य वर्गों के लिए मनोरंजन बन गया है।

क्या मीडिया अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों को सही ढंग से निभा पा रहा है?

मीडिया का अभी भी मानना है कि यह अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों को सही ढंग से निभा रहा है लेकिन इसके क्रियाकलापों को देखकर ऐसा नहीं लगता। पिछले दिनों नीरा राडिया का मामला जब सामने आया तो कितनी दुर्भाग्य की स्थिति बनी कि कई ऐसे बड़े पत्रकार जिन्हें लोग आदर्श समझते थे, वह सत्ता की दलाली में संलिप्त पाए गए। उनकी भूमिका यहां तक देखी गई कि कौन मंत्री बने और कौन किस पद पर विराजमान हो। यह राष्ट्रीय भाव से नहीं बल्कि निजी लाभ के लिए हुआ। सत्ता के गठजोड़ से पैसा, प्रतिष्ठा, पद कमाने के लिए हुआ। आज राष्ट्रीय मीडिया अपने उद्देश्यों से भटका हुआ है। बल्कि छोटे शहरों के पत्रकार व मीडिया संस्थान राष्ट्रीय उद्देश्यों के प्रति जिम्मेदार दिखाई देते हैं।

हाल ही में सरकार की ओर से मीडिया पर कई टिप्पणियां आई है, क्या सरकार इस तरह मीडिया को दबाना चाहती है?

कोई भी सरकार नहीं चाहती कि मीडिया स्वतंत्र और सशक्त हो। बिहार में कई वर्षों पहले जगन्नाथ मिश्र की सरकार ने मीडिया पर शिकंजा कसने व काला कानून बनाने का प्रयास किया व आपातकाल के समय इंदिरा गांधी ने पूरी ताकत मीडिया को कुचलने में लगा दी। सरकार भी मीडिया नियमन का प्रयास कर रही है लेकिन मीडिया भी सरकार के इस प्रयास को बल देता है। मीडिया को अपनी आचार संहिताओं का पालन करना चाहिए और मीडिया पर कयास लगाने के मौके नहीं देने चाहिए।

मजीठिया आयोग की सिफरिशों से आप कहां तक सहमत हैं?

पालेकर आयोग से लेकर अब तक जितने आयोग बने हैं, वह सब पत्रकारों के हितों को ध्यान में रखकर हैं। इससे पहले पत्रकारों की काम करने की शर्तें, उनके वेतन, सुविधाएं नगण्य थी लेकिन इन आयोगों ने चिंता जाहिर की कि विविध क्षेत्र में जोखिमपूर्ण कार्य करने वाले पत्रकारों के आर्थिक हितों की सुरक्षा की जाए और इसीलिए इन आयोगों ने, चाहे वह पालेकर आयोग हो, बछावत आयोग हो या मजीठिया आयोग हो, सबने पत्रकारों की आर्थिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए सिफारिशें प्रस्तुत की। यह सभी सिफारशें उपयोगी हैं और इन्हीं के कारण पत्रकारों की स्थितियों में सुधार आया है। मजीठिया आयोग की सिफारिशों को भी लागू किया जाना चाहिए।

दैनिक और साप्ताहिक समाचार पत्र में क्या अंतर है?

दैनिक और साप्ताहिक समाचार पत्र के उद्देश्य में बहुत अंतर नहीं है, कार्यशैली में व्यापक अंतर है। दैनिक समाचार पत्र एक प्रकार से समाचारों पर आधारित काम में जुटा हुआ है और इसमें काम का दबाव बहुत ज्यादा रहता है। उसकी डैडलाइन की चिंता करनी पड़ती है। संख्या बहुत अधिक होने के कारण दैनिक समाचार पत्रों में प्रतिस्पर्धा का दबाव बहुत ज्यादा रहता है। कल पर कुछ नहीं टाला जा सकता, जो करना है आज ही करना होता है। दैनिक समाचार पत्र की पूरी टीम पूरे समय दबाव में रहकर काम करती है। साप्ताहिक समाचार पत्र में थोड़ी फुर्सत रहती है, लेकिन इसमें जिम्मेदारी यह रहती है कि पूरे सप्ताह में जो भी घटित हुआ है, उसका विश्लेषणात्मक वर्णन अपने पाठकों तक पहुंचाना होता है। इसमें चुनौती रहती है कि सम्पूर्णता के साथ विषय पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है या नहीं, लेकिन काम का दबाव इसमें कम रहता है।

मीडिया की भावी दिशा क्या होनी चाहिए?

मीडिया की प्रारम्भिक या भावी एक ही दिशा होनी चाहिए कि वह समाज व देश के लिए समर्पित होकर कार्य करे और उसके प्रयासों से समाज में विघटन, अलगाववाद व अराजकता की स्थितियां खत्म होनी चाहिए और देश में एक ऐसा वातावरण तैयार होना चाहिए जिससे असामाजिक तत्वों को बल न मिले। अगर मीडिया इतना सशक्त हो जाएगा तो देश की समस्याएं भी खत्म हो जाएगी। हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद ने साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक प्रस्तुत किया है जो इतना खतरनांक है जिसमें हिन्दुओं को घोषित अपराधी मान लिया गया है। कुछ राष्ट्रीय मीडिया को छोड़ दें तो किसी भी मीडिया संस्थान ने लोगों को इस विधेयक के प्रति जागरूक करने का प्रयास नहीं किया। मीडिया अगर सतर्क नहीं होगा तो देश की सत्ता पर बैठे लोग अपने वोट बैंक के लिए देश को खतरे में डाल सकते हैं। भारतीय पत्रकारिता की नींव को ध्यान में रखकर वर्तमान में भी मीडिया को राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए। पत्रकारों को मीडिया की शक्ति का दुरूपयोग करने से बचना चाहिए।

पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाले नवागंतुकों को आप क्या संदेश देना चाहते हैं?

मीडिया में आने वाले नवागंतुकों को सबसे पहले मैं बधाई देना चाहता हूं। उन्हें मीडिया में ग्लैमर और मीडिया की शक्तियों का दुरूपयोग करने से बचना चाहिए। मीडिया के भविष्य को बचाने की जिम्मेदारी उन्हीं के हाथों में है। वह सामाजिक प्रतिबद्वता, देश की सेवा व नवनिर्माण की भावना लेकर मीडिया के क्षेत्र में आए। नए लोगों को अध्ययन में अपनी रूचि बनानी पड़ेगी, बिना अध्ययन के हम अपने विचारों को सशक्त नहीं कर सकते।