Saturday, March 31, 2012

उम्मीदों पर खरा नहीं है स्वास्थ्य बजट




संपूर्ण भारत के नागरिकों के स्वास्थ्य को लेकर जितनी चिंताएं जताई जा रही थी वो आम बजट 2012-13 में नहीं दिखाई दी। सुदूर गांवों में जहां स्वास्थ्य सेवाओं को दुरूस्त करने की आशा इस बजट से जताई जा रही थी, वह विफल रही।

केन्द्र सरकार ने अगले वित्त वर्ष के दौरान स्वास्थ्य सेवाओं पर कुल 30,477 करोड़ खर्च करने का प्रस्ताव दिया है जो पिछले वर्ष से 25.34 फीसदी अधिक है। पिछले वर्ष चिकित्सा क्षेत्र को 26,760 करोड़ की राशि आवंटित की गई थी किंतु स्वास्थ्य मंत्रालय की ढिलाई के कारण सिर्फ 24,315 करोड़ रूपये ही खर्च हो पाए। इससे पहले के बजट का भी यही हाल रहा है। वर्ष 2010-11 का स्वास्थ्य बजट 22,300 करोड़ था जिसमें से 21,518 करोड़ खर्च हो सका। वहीं 2009-10 का स्वास्थ्य बजट 19,534 करोड़ था जिसमें से स्वास्थ्य मंत्रालय ने 18,283 करोड़ खर्च किया। यूं तो प्रतिवर्ष सरकार द्वारा स्वास्थ्य बजट में वृद्धि की जाती है, किंतु इससे भी देश की स्वास्थ्य सेवाओं में कुछ ठोस परिवर्तन देखने को नहीं मिला। अस्पतालों के बाहर आज भी मरीजों की लंबी कतारें देखी जा सकती है। हालांकि राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं पोषण आहार कार्यक्रम के तहत काम करने वाली आशामहिला स्वास्थ्यकर्मियों ने प्रशंसनीय कार्य किया है।

इस साल अप्रैल से शुरू हो रही 12वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का 2.5 प्रतिशत खर्च करने का फैसला लिया है जो सराहनीय कदम है। अभी तक स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का 1.4 प्रतिशत ही खर्च होता आया है।

सरकार ने अपनी महत्वाकांक्षी योजना राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का बजट 18,115 करोड़ से बढ़ाकर 20,822 करोड़ कर दिया है। यह सभी को ज्ञात है कि यूपी में इसकी बड़ी रकम घोटाले की भेंट चढ़ गई थी। इसके बावजूद सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र में एनआरएचएम को बड़ी रकम आवंटित की है जबकि इसके अलावा गांवों में स्वास्थ्य सेवाएं दुरूस्त करने के कोई ठोस इंतजाम नहीं किए गए। सरकार ने एम्स की तर्ज पर 7 नए मेडिकल कॉलेज का निर्माण करने का प्रस्ताव तो दिया है, किंतु गांवों में चिकित्सा पहुंचाने के लिए कोई घोषणा नहीं की है। भारत की 70 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है जिन्हें प्राथमिक चिकित्सा भी आसानी से उपलब्ध नहीं है। बड़े साधारण इलाज जैसे साधारण बुखार, प्रसव दुर्घटना आदि के लिए उन्हें अक्सर शहरों की ओर पलायन करना पड़ता है। यह संघर्ष केवल यहीं तक खत्म नहीं हो जाता। शहरों में आकर भी सरकारी अस्पतालों के बाहर लंबी कतारों में लगकर इलाज के लिए इंतजार करना पड़ता है। मरीज को जैसे-तैसे बिस्तर मिल भी जाता है, किंतु उनके परिजन अस्पताल के बाहर ही समय काटने पर मजबूर होते हैं यदि सरकार गांवों में अस्पताल खोलने वहां डाॅक्टर भेजने पर ध्यान दे तो बड़ी संख्या में ग्रामीणों को अपने आवास के निकट इलाज मिल सकता है जो स्वास्थ्य की दिशा में सराहनीय कदम होगा।

वहीं शहरों की बात की जाए तो सरकार ने बड़े जोर शोर से राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन की योजना तो प्रस्तावित कर दी, लेकिन इसको कार्यान्वित रूप देने के लिए बजट की राशि निर्धारित नहीं की गई है जिसके चलते इस वर्ष इसके शुरू होने में भी संदेह के बादल दिखाई दे रहे हैं। शहरी अस्पतालों में बिस्तर बढ़ाने को लेकर भी सरकार की ओर से कोई इंतजाम नहीं किए गए।

रोटवायरस टीके और एड्स जैसी गंभीर बीमारियों की महंगी दवाओं के साथ ही सिरिंज, कैथेटिक, कैनुले, बीपी मॉनिटर और ग्लूकोमीटर आदि बनाने की सामग्री पर सरकार ने कर रियायत दी है जिसका मामूली फायदा लोगों को मिल सकेगा। वहीं 5 हजार तक के खर्च पर टैक्स छूट का फायदा कुछ सीमित लोगों को जरूर पहुंचेगा किन्तु महंगे इलाजों के लिए सरकार की ओर से कोई कदम उठाना जरूर निराशाजनक है।

बड़ी बीमारियों के इलाज में आज आम आदमी की जेब सबसे ज्यादा ढीली होती है। स्वास्थ्य बीमा जैसी योजनाओं का कारोबार भी इन्हीं के कारण चल रहा है। सरकार की ओर से इन बीमारियों के इलाज सस्ता करने की ओर ध्यान देने के पीछे इन बीमा कंपनियों को लाभ पहुंचाने की प्रवृत्ति भी हो सकती है। कुल मिलाकर देखा जाए तो स्वास्थ्य बजट आम आदमी के लिए निराशाजनक रहा।