Wednesday, April 27, 2011

अक्षय ऊर्जा से जगमगाएगा भारत!

गांव में ऊर्जा की आपूर्ति नहीं है जिसके कारण लोग रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन करते हैं । शहरों में बिजली की आपूर्ति के कारण वहां उद्योग विकसित हो रहे है जिसके कारण गांव की अपेक्षा शहरों में भीड़ बढ़ती जा रही है । ऊर्जा आपूर्ति के लिए गैर नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों जैसे कोयला, कच्चा तेल आदि पर निर्भरता इतनी बढ़ रही है कि इन स्रोतों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है । विशेषज्ञों का कहना है कि अगले 40 वर्षों में इन स्रोतों के खत्म होने की संभावना है । ऐसे में विश्वभर के सामने ऊर्जा आपूर्ति के लिए अक्षय ऊर्जा स्रोतों से बिजली प्राप्त करने का विकल्प रह जाएगा । अक्षय ऊर्जा नवीकरणीय होने के साथ-साथ पर्यावरण के अनुकूल भी है । हालांकि यह भी सत्य है कि देश की 80 प्रतिशत विद्युत आपूर्ति गैर नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से पूरी हो रही है । जिसके लिए भारी मात्रा में कोयले का आयात किया जाता है । वर्तमान में देश की विद्युत आपूर्ति में 64 प्रतिशत योगदान कोयले से बनाई जाने वाली ऊर्जा तापीय ऊर्जा का है । ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति और अन्य कार्यों के लिए कच्चे तेल और पेट्रोलियम उत्पादों का भी आयात किया जाता है जिसके कारण भारत की मुद्रा विदेशी हाथों में जाती है । आंकड़ों पर गौर किया जाए तो वर्ष 2009-10, 2008-09 में कच्चे तेल और पेट्रोलियम उत्पादों का कुल सकल आयात क्रमशः 4,18,475 करोड़, 4,22,105 करोड़ था जबकि इसकी तुलना में निर्यात क्रमशः 1,44,037 करोड़, 1,21,086 करोड़ था । अतः आयात और निर्यात के बीच इतना बड़ा अंतर अर्थव्यवस्था को कमजोर करने वाला है जिसे कम किए जाने की जरूरत है । यह अक्षय ऊर्जा के प्रयोग से ही संभव है । भारत में अक्षय ऊर्जा के कई स्रोत उपलब्ध है । सुदृढ़ नीतियों द्वारा इन स्रोतों से ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है ।

सौर ऊर्जा

सूरज से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए फोटोवोल्टेइक सेल प्रणाली का प्रयोग किया जाता है । फोटोवोल्टेइक सेल सूरज से प्राप्त होने वाली किरणों को ऊर्जा में तब्दील कर देता है । भारत में सौर ऊर्जा की काफी संभावनाएं हैं क्योंकि देश के अधिकतर हिस्सों में साल में 250-300 दिन सूरज अपनी किरणें बिखेरता है । फोटोवोल्टेइक सेल के जरिए सूरज की किरणों से ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है । भारत में पिछले 25-30 वर्षों से सौर ऊर्जा पर काम हो रहा है लेकिन पिछले तीन सालों के दौरान इसमें गति आई है । सरकार ने वर्ष 2009 में सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सौर मिशन का अनुमोदन किया जिसका उद्देश्य वर्ष 2022 तक ग्रिड विद्युत शुल्क दरों के साथ समानता लाने के लिए देश में सौर ऊर्जा प्रौद्योगिकियों का विकास और संस्थापन करना है । सरकार की इस भागीदारी से लोग सौर ऊर्जा को समझने लगे हैं । हालांकि सौर ऊर्जा का विकास बहुत धीमी गति से हो रहा है । ग्याहरवी पंचवर्षीय योजना के दौरान सौर ऊर्जा से 50 मेगावॉट बिजली प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन सितम्बर 2010 तक केवल 8 मेगावॉट बिजली ही उत्पादित की जा सकी । सौर ऊर्जा में प्रतिवर्ष लगभग 5 हजार खरब यूनिट बिजली बनाने की संभावना मौजूद है जिसके लिए इस दिशा में तीव्र गति से कार्य किए जाने की आवश्यकता है ।

देश के टेलीकॉम टॉवर प्रतिवर्ष लगभग 5 हजार करोड़ का तेल जला रहे हैं । यदि वह अपनी आवश्यकता सौर ऊर्जा से प्राप्त करते हैं तो बड़ी मात्रा में डीजल बचाया जा सकता है । सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए लोगों को इसकी ओर आकर्षित करना जरूरी है । लोग इसको समझने तो लगे हैं लेकिन इसका प्रयोग करने से कतराते हैं । छोटे स्तर पर सोलर कूकर, सोलर बैटरी, सौर ऊर्जा से चलने वाले वाहन, मोबाइल फोन आदि का प्रयोग देखने को मिल रहा है लेकिन ज्यादा नहीं । विद्युत के लिए सौर ऊर्जा का प्रयोग करने से लोग अभी भी बचते हैं जिसका कारण सौर ऊर्जा का किफायती न होना है । सौर ऊर्जा अभी महंगी है और इसके प्रति आकर्षण बढ़ाने के लिए जागरूकता जरूरी है । साथ ही यदि इसे स्टेटस सिंबल बना दिया जाए तो लोग आकर्षित होंगे । समाज के कुछ जागरूक लोगों को इकट्ठा करके पहले उन्हें इसकी ओर आकर्षित किया जाए तो धीरे-धीरे और लोग भी इसका महत्व समझने लगेंगे ।

सौर ऊर्जा के क्षेत्र में सेल्को नाम की कंपनी ने अच्छा कार्य किया है । सेल्को के मालिक डॉ. हरीश हांदे ने पिछले 20-25 सालों में कंपनी को आगे बढ़ाया है । कर्नाटक के लगभग एक हजार गांवों में सौर ऊर्जा का कार्य चल रहा है । वहां अगर सभी गांवों का सौर ऊर्जा के प्रति विश्वास बढ़ा है तो उसका श्रेय सेल्को को जाता है।

सौर ऊर्जा को विकसित करने में जर्मनी ने सराहनीय कार्य किया है । जर्मनी पहले अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आयात पर निर्भर था । उसने अपनी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करने और ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सौर ऊर्जा को विकसित किया । लगभग 10 लाख घरों में छत पर फोटोवोल्विक सेल लगाए गए जो सफल हुए । आज जर्मनी के लाखों लोगों का रोजगार अक्षय ऊर्जा से जुड़ा हुआ है ।

पवन ऊर्जा

भारत में पवन ऊर्जा की अपार क्षमताएं हैं । नवीन और अक्षय ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार भारत में वायु द्वारा 48,500 मेगावॉट तक बिजली उत्पादन की क्षमता है । लेकिन पवन ऊर्जा का विकास अभी धीमी गति से हो रहा है । भारत में केवल 12,800 मेगावॉट की क्षमता ही स्थापित की जा सकी है । वायु की तीव्र गति से वायु टरबाइन के घूमने से ऊर्जा प्राप्त होती है, लेकिन यह ऊर्जा वायु की गति पर निर्भर है । टरबाइन के घूमने के लिए 5.5 मीटर/सेकन्ड की रफ्तार से वायु आवश्यक है । भारत में तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और राजस्थान में पवन ऊर्जा का कार्य चल रहा है । भारत में पवन ऊर्जा की काफी संभावनाएं हैं । विशेषज्ञों द्वारा उम्मीद जताई जा रही है कि अगले 10-12 वर्षों में पवन ऊर्जा की दिशा में कार्य को प्रगति मिलेगी ।

जल ऊर्जा

नदियों का बहता पानी और समुद्र से उत्पन्न ज्वारभाटा व जल तरंगें ऊर्जा का प्रमुख स्रोत बन सकते हैं और इससे बड़ी मात्रा में बिजली उत्पादित की जा सकती है । वर्ष 2005 में देश की विद्युत आपूर्ति में जल ऊर्जा का योगदान 26 प्रतिशत था । देश में इससे 15 हजार मेगावॉट बिजली प्राप्त करने की संभावना है । विदित है कि जल का आवेग वायु के आवेग से भारी होता है, अतः छोटे से झरने से भी काफी बिजली बनाई जा सकती है । जल से बिजली प्राप्त करने का सबसे पुराना तरीका पन बिजली संयंत्र है जो बांध पर निर्भर होते हैं । इसके तहत नदी के पानी को बांध में एकत्रित कर लिया जाता है । इसके बाद बांध का द्वार खोल दिया जाता है और पानी तीव्र गति से पाइप में गिरता है और टरबाइन पर लगते ही टरबाइन चलने लगता है और बिजली का उत्पादन होता है । इसके अलावा छोटे-छोटे झरनों पर भी टरबाइन लगाकर बिजली बनाई जा सकती है ।

समुद्र में उत्पन्न होने वाले ज्वार-भाटे व लहरों से भी बिजली प्राप्त की जा सकती है । इससे ऊर्जा प्राप्त करने के लिए समुद्र के कोल पर बैराज बना दिया जाता है और उसके अंदर टरबाइन लगे होते हैं । जब ज्वार तीव्र गति से इसके अंदर प्रवेश करती है तो टरबाइन चलता है और बिजली उत्पन्न होती है । इसी तरह जब पानी वापिस बाहर आता है तब भी बिजली पैदा होती है । इसके अलावा समुद्र तट से परे पानी के भीतर चक्कियां लगाने से भी बिजली प्राप्त की जा सकती है । ये चक्कियां ज्वार-भाटे से चलती है । समुद्र में उत्पन्न होने वाली लहरों से भी बिजली प्राप्त की जा सकती है । भारत की सीमाएं तीन तरफ से समुद्र से घिरी हैं जिसके चलते भारत ऊर्जा उत्पादन में इसका विशेष लाभ उठा सकता है ।

भू-तापीय ऊर्जा

भू-तापीय ऊर्जा पृथ्वी से प्राप्त होने वाली ऊर्जा है । पृथ्वी के भीतर गर्म चट्टानें पानी को गर्म करती है और इससे भाप उत्पन्न होती है । ऊर्जा प्राप्त करने के लिए पृथ्वी के गर्म क्षेत्र तक एक सुरंग खोदी जाती है और इसके जरिए भाप को ऊर्जा संयंत्र तक लाया जाता है जिसके पश्चात टरबाइन घूमने लगते है । एक अनुमान के अनुसार भारत में भू-तापीय ऊर्जा के लिए 113 तंत्रों के संकेत मिले हैं जिससे लगभग 10 हजार मेगावॉट बिजली उत्पादन की संभावना है । भू-तापीय ऊर्जा के लिए लगभग 3 किमी. गहराई तक जमींन के भीतर खुदाई करके जांच करनी होगी लेकिन भारत के पास संसाधनों की कमी के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है । भारत के पास इतनी गहराई तक भेदन क्षमता वाली मशीन नहीं है, अतः ऐसी मशीनों का आयात कर इस स्रोत का लाभ उठाया जा सकता है ।

बायोमास एवं जैव ईंधन

भारत में जैव ईंधन की वर्तमान उपलब्धता सालाना 120-150 मिलियन मीट्रिक टन है । कृषि और वानिकी अवशेषों का प्रयोग ऊर्जा प्राप्त करने के लिए किया जाता है । जैविक पदार्थों से लगभग 16 हजार मेगावॉट बिजली उत्पादित की जा सकती है । भारत की लगभग 90 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या जैव पदार्थों का प्रयोग खाना बनाने, ऊष्णता प्राप्त करने में करती हैं । इसके अलावा कृषि से निकलने वाले व्यर्थ पदार्थ जैसे खाली भुट्टे, फसलों के डंठल, भूसी आदि और शहरों व उद्योगों के ठोस कचरे से भी बिजली बनाई जा सकती है । भारत में इससे लगभग प्रतिवर्ष 23,700 मेगावॉट बिजली प्राप्त की जा सकती है लेकिन अभी केवल 2,500 मेगावॉट का ही उत्पादन हो रहा है ।

गैर पारंपरिक स्रोतों से प्राप्त होने वाली ऊर्जा में लचीलापन होता है अर्थात कोयले से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए 2 हजार मेगावॉट या इससे ज्यादा का प्लांट लगाना पड़ता है जबकि गैर परंपरागत स्रोतों से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए एक छोटी सी इमारत में भी 15-20 मेगावॉट का प्लांट लगाया जा सकता है । इन स्रोतों को चलाने के लिए ज्यादा प्रशिक्षण की भी आवश्यकता नहीं है । कोई भी व्यक्ति इसे आसानी से चला सकता है ।

किसी भी देश की अर्थव्यवस्था उसकी ऊर्जा आवश्यकता और पूर्ति पर निर्भर है और हमारा देश ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए आयात पर निर्भर है । इस समय तो परमाणु ऊर्जा के लिए विदेशों के साथ हाथ मिलाया जा रहा है । जापान की त्रासदी देखने के बाद भी सरकार को यह समझ नहीं आ रहा है कि परमाणु ऊर्जा देश के लिए कितनी खतरनांक है । परमाणु ऊर्जा के लिए सरकार विदेशों के साथ समझौते कर रही हैं जिसकी एवज में भारतीय मुद्रा विदेशी हाथों में पहुंच रही है जबकि अपने पास अक्षय ऊर्जा के इतने सारे संसाधन मौजूद होने के बावजूद सरकार इसके प्रति ढुलमुल रवैया अपना रही है । भविष्य में जब गैर नवीकरणीय स्रोत खत्म होने की कगार पर होंगे तो नवीकरणीय ऊर्जा का वर्चस्व बढ़ेगा । आज भारत सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में आगे बढ़ रहा है जिसके पीछे कई वर्षों की मेहनत है । 90 के दशक में एनआईआईटी जैसे प्रशिक्षण केन्द्रों ने सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग का प्रशिक्षण देना शुरू किया जिसमें युवाओं ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया और अब भी ले रहे हैं । इसी तरह अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में भी प्रशिक्षण देकर कुछ लोगों का दल बनाना होगा जो इस दिशा में कार्य करें । आज भारत अपनी अक्षय ऊर्जा की क्षमताओं को पहचान लेगा तो कल पूरे विश्व के लिए आदर्श बनेगा ।

जम्मू-कश्मीर समाधान के लिए एकजुट हो देश


1947 में जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर का भारत में संपूर्ण विलय कर दिया था, लेकिन तत्कालीन नेताओं की ढुलमुल नीतियों से जम्मू-कश्मीर की समस्या विकसित हो गई । जम्मू-कश्मीर विवाद को लेकर सरकार ने आज तक कई समझौतें किए हैं और नीतियां बनाई हैं जो असफल हुई है । इन सबके चलते अलगाववादी ताकतों का मनोबल बढ़ा है जिसके कारण उनकी मांगे बढ़-चढ़ कर सामने आ रही है । वह जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने की मांग खुलेआम कर रहे हैं जिस पर हमारी केन्द्र सरकार खामोश बैठी है । हालत यह है कि राजनीतिज्ञों, अलगाववादियों व विश्व ताकतों ने मिलकर ऐसा माहौल बना दिया है जिसे देखकर प्रतीत होता है कि छोटे-मोटे समझौतों के अलावा जम्मू-कश्मीर विवाद का कोई हल नहीं है । अलगाववादियों ने मिलकर इसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया है जिसे हमारी सरकार ने परोक्ष रूप से स्वीकार किया है ।


जम्मू-कश्मीर विवाद

भारत-पाक के बीच जम्मू-कश्मीर विवाद अपना हित साधने के लिए पश्चिमी ताकतों की ही देन है । उनका मत था कि जम्मू-कश्मीर विवादित मुद्दा बना रहेगा तो दोनों देशों के बीच उनका दखल बना रहेगा । भारत को दो भागों में बांटने की योजना आजादी से पहले ही बना ली गई थी । ब्रिटिश साम्राज्य चाहता था कि देश छोड़ने के बाद भी यहां उनका आर्थिक और राजनीतिक दखल बना रहे । यदि सरकार ने जम्मू-कश्मीर विवाद में किसी निश्चित रणनीति के तहत काम किया होता तो यह मुददा आसानी से सुलझ सकता था।


1947 से पहले जम्मू-कश्मीर की सीमा अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन, रूसी गणराज्य, तिब्बत और भारत से लगती थीं । उस समय कहा जाता था कि ‘यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां 6 साम्राज्य मिलते हैं’। अंग्रेजों ने भी अपने शासनकाल के पहले 100 सालों के बाद इस क्षेत्र का महत्व समझ लिया और उन्होंने यहां विशेष ध्यान देना शुरू किया । ब्रिटिशों ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह से इस क्षेत्र को मांगा था, लेकिन महाराजा ने यह देने से इनकार कर दिया । इसके बाद जम्मू-कश्मीर में अंग्रेजों द्वारा एक गिलगित एजेंसी बनाई गई जिसमें वहां के सभी रजवाड़ों को जोड़ दिया गया । अंग्रेजों ने हरिसिंह के साथ 60 वर्षों का समझौता किया जिसके तहत गिलगित एजेंसी में शासन तो हरिसिंह का था लेकिन सैनिक वहां ब्रिटिश तैनात थे । समझौते का कार्यकाल पूरा होने से पहले ही वर्ष 1947 में भारत को आजादी मिल गई और सैनिकों ने गिलगित एजेंसी महाराजा की पूर्वानुमति के बिना ही पाकिस्तान को सौंप दी जिस पर आज तक पाक का कब्जा है । इसी क्षेत्र में चीन ने दखलअंदाजी कर अपनी चौकी और सड़क मार्ग बनाया है । जम्मू-कश्मीर विवाद को आजादी के समय ही सुलझाया जा सकता था लेकिन महाराजा और तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के बीच व्यक्तिगत अहंकार के कारण उन्होंने इस क्षेत्र को विवादित छोड़ दिया । वहां पर रणनीतिक तौर पर सीजफायर लागू करना सबसे बड़ी गलती थी । भारतीय सेना को यदि 48 या 72 घंटों तक लड़ने दिया होता तो भारतीय सेना सीमा तक पहुंच जाती और मुजफ्फराबाद, गिलगित भी आज भारत के कब्जे में होता। एक तथ्य और ध्यान देने वाला है कि 1947 में पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर में कोई समर्थन नहीं था लेकिन हमारे राजनीतिज्ञों की गलत नीतियों का ही नतीजा है कि पाक का समर्थन वहां धीरे-धीरे बढ़ता गया ।

26 अक्टूबर 1947 को महाराजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय कर दिया था । 27 अक्टूबर 1947 को लार्ड माउण्टबेटन ने विलय पत्र स्वीकार तो किया लेकिन उन्होंने इसके जवाब में एक पत्र लिखकर जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की बात कही । 1 नवंबर 1947 को उन्होंने लाहौर में मोहम्मद अली जिन्ना से बातचीत करते हुए जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की बात स्वीकार की जिससे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने भी अपनी सहमति जताई । जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का अधिकार लार्ड माउण्टबेटन के पास नहीं था क्योंकि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय उसी तरह किया गया जिस तरह अन्य रियासतों का। भारतीय स्वाधीनता अधिनियम के तहत किसी भी रियासत को भारत या पाक में शामिल होने की स्वतंत्रता थी। इसी अधिनियम के तहत महाराजा हरिसिंह ने भी जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय किया । भारतीय स्वाधीनता अधिनियम के तहत यदि कोई जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय मानने से इनकार करता है तो उसे भारत और पाकिस्तान का विभाजन भी अस्वीकार करना होगा ।


अस्थायी अनुच्छेद-370

अस्थायी अनुच्छेद-370 के कारण ही जम्मू-कश्मीर और भारत के अन्य राज्यों के बीच एकात्मक संबंधों में बाधा आई है । इस अनुच्छेद के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य भारत से अलग प्रतीत होता है । 17 अक्टूबर 1949 को कश्मीर मामलों के मंत्री गोपालस्वामी अयंगार ने संविधान सभा में अनुच्छेद 306(ए) (वर्तमान 370) प्रस्तुत किया । उस समय कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में अनुच्छेद-370 के समर्थन में अयंगार और मौलाना अबुल कलाम आजाद के अलावा और कोई नहीं था । नेहरू के सम्मान में सरदार पटेल को इस अनुच्छेद का समर्थन करने के लिए सामने आना पड़ा और कांग्रेस ने नेहरू की इच्छा का सम्मान करते हुए इस अनुच्छेद को संविधान में जोड़ दिया । अनुच्छेद 370 को जम्मू-कश्मीर में कुछ विशेष परिस्थितियों के अंतर्गत लाया गया था और स्थितियां सामान्य होने पर इसे खत्म करने की बात थी । संविधान सभा द्वारा विलय पत्र का अनुमोदन किए जाने के बाद इसकी आवश्यकता नहीं थी क्योंकि जम्मू-कश्मीर का विलय भी भारत में अन्य रियासतों की तरह हुआ था लेकिन भारत के राजनीतिज्ञों ने मिलकर इस विवादित अनुच्छेद को संविधान में जोड़ दिया।


अनुच्छेद-370 के प्रावधानों के अनुसार

• संसद को जम्मू-कश्मीर के बारे में रक्षा, विदेश मामले और संचार के विषय में कानून बनाने का अधिकार है लेकिन किसी अन्य विषय से संबंधित क़ानून को लागू करवाने के लिए केंद्र को राज्य सरकार का अनुमोदन चाहिए।
• इसी विशेष दर्जें के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य पर संविधान की धारा 356 लागू नहीं होती।
• इस कारण राष्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बरख़ास्त करने का अधिकार नहीं है।
• 1976 का शहरी भूमि क़ानून जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता।
• इसके तहत भारतीय नागरिक को विशेष अधिकार प्राप्त राज्यों के अलावा भारत में कही भी भूमि ख़रीदने का अधिकार है। यानी भारत के दूसरे राज्यों के लोग जम्मू-कश्मीर में ज़मीन नहीं ख़रीद सकते हैं।
• भारतीय संविधान की धारा 360 जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है, वह भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती।

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 का फायदा केवल राजनीतिक पार्टियों और व्यापारियों को मिल रहा है। जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ तो अन्याय ही हो रहा है । अनुच्छेद-370 ने जम्मू-कश्मीर को आर्थिक लिहाज से पंगु बना दिया है । जम्मू-कश्मीर औद्योगिकीकरण के लिहाज से पिछड़ा हुआ है । स्थानीय लोगों के पास भी रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं है । जम्मू-कश्मीर भ्रष्ट राज्यों में शीर्ष पर है । वहां सबसे ज्यादा कर चोरी, अनुदान चोरी आदि के मामलें सामने आते है । अनुच्छेद 370 के दुष्परिणाम नीचे दिए गए हैं ।
अनुच्छेद 370 पूरे देश के नागरिकों के साथ भेदभाव करता है । इसके अनुसार जम्मू-कश्मीर का नागरिक भारत का नागरिक है लेकिन भारत का नागरिक जम्मू-कश्मीर का नहीं ।
• देशभर में पंचायत राज है जिसमें चुनाव होते है लेकिन जम्मू-कश्मीर में पंचायतों का निर्णय राज्य सरकार लेती है ।
• आजादी के बाद पश्चिम पाकिस्तान से आए हिन्दू शरणार्थी नागरिकता के मूल अधिकारों से वंचित है । इनमें अधिकतर हरिजन और पिछड़ी जातियों के लोग है । इन्हें सरकारी नौकरी, संपत्ति क्रय करने और स्थानीय निकायों में चुनाव का अधिकार नहीं है । इनके बच्चे छात्रवृत्ति से दूर है । इसी प्रकार देश के दूसरे हिस्सों से आए पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी भी नागरिकता के अधिकारों से वंचित हैं ।
• 1956 में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री बख्शी गुलाम मुहम्मद ने जम्मू शहर में सफाई व्यवस्था में सहयोग करने के लिए अमृतसर से 70 बाल्मिकी परिवारों को बुलाया था । उन्हें आज तक अन्य नागरिकों की तरह समान अधिकार नहीं मिले हैं । उनके बच्चें उच्च शिक्षा पाने के बावजूद भी सफाई के ही पात्र है ।
अनुच्छेद 370 महिला विरोधी भी है । जम्मू-कश्मीर की कोई महिला यदि दूसरे राज्य में शादी करती है तो उसके जम्मू-कश्मीर में प्राप्त अधिकार स्वतः समाप्त जाते है ।
अनुच्छेद 370 के पक्ष में सरकार यह तर्क देती है कि इसे हटाने से देशभर के मुसलमान नाराज हो जाएंगे । लेकिन प्रश्न उठता है कि अनुच्छेद 370 से अन्य राज्यों के मुस्लिम क्यों नाराज होंगे ? देशभर में लागू संविधान जो पूरे देश के मुस्लिमों के हित में है वो जम्मू-कश्मीर के मुस्लिमों के हित में क्यों नहीं है?


विस्थापितों की स्थिति

जम्मू-कश्मीर विस्थापितों की भूमि बन गई है और वहां के विस्थापितों के साथ लगातार अन्याय हो रहा है । आजादी के 63 वर्षों बाद भी वह गुलामी की जिंदगी जी रहे हैं । उनको वहां न तो जमीन खरीदने का अधिकार है, न ही सरकारी नौकरी प्राप्त करने का । इनके बच्चे भी छात्रवृत्ति के अधिकारों से वंचित हैं । 1947 के बाद पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से लगभग 50 हजार परिवार विस्थापित होकर भारत आए, आज जिनकी जनसंख्या 12 लाख है । इनमें से ज्यादातर संख्या हिंदुओं की थी । सरकार ने पीओके से आने वाले विस्थापितों को उनकी ज़मीनों का कोई मुआवजा नहीं दिया है । इसके पीछे कारण यह है कि किसी को यह न लगे कि भारत ने पीओके से दावा छोड़ दिया है । सरकार ने इन लोगों को एक्स-ग्रेशिया देने का निर्णय किया जिसमें शर्त रखी गई कि विस्थापितों के परिवारों का मुखिया होना चाहिए । लेकिन सरकार की सूची में आज तक इन परिवारों का कोई मुखिया दर्ज नहीं है । साथ ही सरकार ने कहा कि ज्यादा आय वालों को एक्स-ग्रेशिया नहीं दिया जाएगा । इस प्रकार सरकार ने किसी भी प्रकार का मुआवजा देने से अप्रत्यक्ष रूप से अपने हाथ खींच लिए । इसी प्रकार पश्चिमी पाक के 2 लाख शरणार्थी, छम्ब विस्थापित (1971 में शिमला समझौते में पाकिस्तान को दिए जाने वाले क्षेत्र के विस्थापित, जिनकी संख्या लगभग 1 लाख है), कश्मीरी हिन्दू (लगभग 3.5 लाख) भी नागरिकता के मूल अधिकारों से वंचित हैं । सरकार विस्थापित हिंदू परिवारों के लिए फ्लैट्स भी केवल 100-150 के समूह में बनाती है जबकि कश्मीर में हिंदुओं की भूमि पर एक-साथ 10 हजार फ्लैट बनाए जा सकते है । इसके पीछे कारण यह है कि वह हिंदुओं को इकट्ठा नहीं होने देना चाहती ।


5 कार्य समूह

सरकार ने माना कि जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम जनता के साथ अन्याय हो रहा है । सरकार ने उनका समर्थन हासिल करने के लिए राउंड टेबल कांफ्रेंस बनाई जिसमें सभी पर्टियों के प्रतिनिधि बैठक के दौरान अपने विचार व्यक्त करते थे । 25 मई 2005 को आयोजित दूसरी राउंड टेबल कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विभिन्न विषयों पर विचार करने के लिए 5 कार्य समूहों की घोषणा की । इन कार्य समूहों की रिपोर्ट का समेकित रूप से विश्लेषण किया जाए तो इन्होंने अलगाववादियों की मांग से भी ज्यादा सिफारिश कर डाली । इन्होंने उपद्रवग्रस्त क्षेत्र विशेषाधिकार कानून एवं सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाने, 20 साल से पाक अधिकृत कश्मीर में रह रहे आतंकवादियों के वापस आने पर आम माफी और उनका पुनर्वास, नियंत्रण रेखा के आर-पार के विधायकों का साझा नियंत्रण समूह, परस्पर दूरसंचार की सुविधा और सीमा पार आवागमन की खुली छूट आदि सुझाव दिए ।

पिछले साल जम्मू-कश्मीर में हुई गोलीबारी के बाद संयुक्त संसदीय समिति ने भी जम्मू-कश्मीर का दौरा किया । जहां मीरवाईज और गिलानी जैसे अलगाववादियों ने कश्मीर को पाक में मिलाने का राग अलापा। सरकार ने जम्मू-कश्मीर पर फैसले के लिए अधिकार प्राप्त समूह की जरूरत महसूस की जिसके बाद दिलीप पडगांवकर, राधा कुमार और एम.एम. अंसारी को वार्ताकार के तौर पर नियुक्त किया गया । असल में सरकार ने कानूनी तौर पर अपनी बात मनवाने के लिए वार्ताकार नियुक्त किए जिससे लोग उनके फैसलों का ज्यादा विरोध न करें । यह वार्ताकार भी अलगाववादियों की ही भाषा बोल रहे हैं । इन्होंने जम्मू-कश्मीर समस्या के निवारण के लिए पाक के साथ वार्ता पर बल दिया है । वार्ताकारों की रिपोर्ट में कुछ सुझाव आने की संभावना है जिसमें यह भारत और पाक दोनों के कश्मीर को अधिक स्वायत्ता देने का सुझाव दे सकते है । साथ ही एक ऐसा समूह बनाने की मांग कर सकते है जो भारत और पाक अधिकृत दोनों कश्मीर में सेवाओं को देखे जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य आदि । यदि ऐसा होता है तो भारत के कश्मीर और पीओके से कोई भी एक-दूसरे के स्थान पर आ-जा सकता है । ऐसे में मामूली पारदर्शिता होने के चलते पाकिस्तान से और भी बहुत कुछ आ सकता है जिसका भारी खामियाजा भारत को भुगतना पड़ सकता है।

कश्मीर समस्या के समाधान के लिए जरूरी है कि अनुच्छेद 370 और अलग झंडे के प्रावधान को हटाया जाए क्योंकि यह जम्मू-कश्मीर राज्य को पूरे देश से पृथक करते है । अनुच्छेद 370 को संसद द्वारा पारित किया गया था और संसद ही इसे हटा सकती है । लोकसभा दो-तिहाई बहुमत से इस अनुच्छेद को हटा सकती है लेकिन इसके लिए जम्मू-कश्मीर विधानसभा से दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता है । अब यहां एक प्रश्न उठता है कि विधानसभा की शक्तियां गवर्नर के पास होती है । क्या गवर्नर की सिफारिश पर अनुच्छेद 370 को हटाने के लिए लोकसभा में विधेयक नहीं पारित किया जा सकता है?


यह कार्य थोड़ा कठिन जरूर है लेकिन इसके लिए जम्मू-कश्मीर के लोगों समेत पूरा देश एकजुट हो तो सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है । इसके लिए देश भर के लोगों को यह सोचना होगा कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है । जम्मू-कश्मीर के लोगों को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त है जबकि अन्य राज्यों के नागरिकों को नहीं । जम्मू-कश्मीर के नागरिक पूरे देश के नागरिक है लेकिन पूरे देश के नागरिक जम्मू-कश्मीर के नहीं । पूरा देश एकजुट हो जाता है तो सरकार पर अस्थायी अनुच्छेद 370 को हटाने के लिए दबाव बनाया जा सकता है ।
अतः कश्मीर समस्या के हल के लिए पूरे देश को सोचना होगा क्योंकि सरकार के लिए जम्मू-कश्मीर प्राथमिकता नहीं है उनके लिए चुनाव प्राथमिकता है । हां सरकार पर यदि चुनावी तौर पर दबाव बनाया जाए तो वह इस समस्या पर विचार कर सकती है, वरना इसकी संभावाना न के बराबर है ।


Thursday, April 7, 2011

सूरज से निकलेगी भारत के भविष्य की रोशनी


भारत जैसे विकासशील देश को एक ओर जहां विश्व की उभरती शक्ति के रूप में देखा जा रहा है वहीं दूसरी ओर अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने वाले ऊर्जा के क्षेत्र में कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है । भारत की जनता का 40 प्रतिशत भाग अभी भी विद्युत के बिना जीवनयापन कर रहा है जबकि गांवों में 50 प्रतिशत से भी ज्यादा लोगों को बिजली नसीब नहीं हो रही है । विद्युत आपूर्ति के लिए भारत अभी भी पारंपरिक थर्मल स्रोतों जैसे कोयला, प्राकृतिक गैस, तेल आदि पर निर्भर है जबकि अगले 40 वर्षों में इन स्रोतों का अस्तित्व खतरे में है । भारत के सामने एक चुनौती इन स्रोतों को भावी पीढ़ी के लिए सहेज कर रखने की है, तो दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए इन स्रोतों पर से निर्भरता कम करनी होगी । ऐसे में भारत को अक्षय स्रोतों से प्राप्त होने वाली ऊर्जा को स्थापित करना होगा जिसमें सौर ऊर्जा प्रमुख है। भारत को सौर ऊर्जा में निवेश करने की जरूरत है जिससे भारत का भविष्य सुरक्षित हो सके ।

वहीं विद्युत आपूर्ति के लिए भारत दूसरे देशों पर भी निर्भर है । वर्ष 2007 के आंकड़ों पर गौर करें तो 80 प्रतिशत विद्युत पारंपरिक थर्मल स्रोतों से प्राप्त की गई जबकि 16 प्रतिशत ऊर्जा जल विद्युत से प्राप्त की गई। जियोथर्मल व अन्य अक्षय स्रोतों से केवल 2-2 प्रतिशत ऊर्जा प्राप्त की गई। उल्लेखनीय है कि भारत की 70 प्रतिशत विद्युत आपूर्ति कोयले पर निर्भर है। भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक देश है, वहीं कोयले के उपभोग में भी भारत को तीसरा स्थान प्राप्त है। बिजली आपूर्ति के लिए भारत को बहुत बड़ी मात्रा में कोयले का आयात करना पड़ता है। कोल इंडिया लि. के अध्यक्ष पार्थ भट्टाचार्य ने हाल ही में बताया था कि मार्च 2011 तक कोयले का आयात 10 करोड़ टन तक पहुंच सकता है, जबकि वर्ष 2009 में भारत ने कुल 5 करोड़ 90 लाख टन कोयले का आयात किया था। भारत इस समय लगभग 1 लाख 50 हजार मेगावॉट बिजली का उत्पादन कर रहा है, वहीं तेजी से विकास के चलते वर्ष 2015 में विद्युत की मांग 3 लाख मेगावॉट तक पहुंचने की संभावना है। ऐसे में भारत को अपनीऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वयं पर निर्भर होना होगा जिससे भविष्य में भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत हो सके, क्योंकि किसी भी देश की ऊर्जा की मांग व खपत अर्थव्यवस्था को विशेष रूप से प्रभावित करती है।
सूरज की रोशनी से संपन्न भारत ने सौर ऊर्जा के महत्व को समझ लिया है। नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (एनएपीसीसी) भारत में सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने का कार्य कर रहा है। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2020 तक सौर ऊर्जासे केवल 20 हजार मेगावॉट बिजली ही प्राप्त हो सकेगी जो भारत की विद्युत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं है । इस क्षेत्र में सरकार को अधिक निवेश की जरूरत है। वर्तमान समय में सौर ऊर्जा की लागत ज्यादा होने के कारण भारत के लोग इसकी ओर आकर्षित नहीं हो रहे हैं । सौर ऊर्जा की लागत 17 से 22 रूपये प्रति यूनिट पड़ती है। सरकार को सौर ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश कर सौर ऊर्जा को सस्ता बनाने के प्रयास करने चाहिए। भारत की 6 करोड़ 75 लाख ग्रामीण जनसंख्या और 37 लाख शहरी जनसंख्या विद्युत के लिए मिट्टी के तेल का प्रयोग करती हैं। इसकी जगहसौर ऊर्जा से जलने वाली लालटेनों को बढ़ावा दिया जाए तो कच्चे तेल की बचत की जा सकती है। वहीं सौर ऊर्जा से चलने वाले वाहनों व अन्य सामानों को भी बढ़ावा देना आवश्यक है जिससे कच्चे तेल पर से निर्भरता कम होने के साथ-साथ वातावरण भी स्वच्छ रहे। भारत में सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए फोटोवोल्विक प्रणाली विकसित किए जाने की जरूरत है।

आज विश्व में ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति खाड़ी देश (ईरान, यूएई, ओमान, बहरीन, कतर, सऊदी अरब और कुवैत) कर रहे हैं क्योंकि वहां कच्चे तेल, कोयला, खनिजों आदि के भंडार प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं और इन्हीं भंडारों के कारण खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्था मजबूत है। विकसित देश ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए खाड़ी देशों पर निर्भर हैं जिसके कारण ये देश विश्व नीतियों में भी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। भविष्य पर गौर किया जाए तो अगले 40 वर्षों के दौरान गैर नवीकरणीय स्रोत जैसे कोयला, पेट्रोल आदि का अस्तित्व खतरे में है जिसका प्रभाव खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्था पर विशेष तौर पर पड़ने वाला है। ऊर्जा के इन संसाधनों की समाप्ति के साथ ही खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी। ऐसे में भारत ऊर्जा के क्षेत्र में विश्व शक्ति के रूप में बनकर उभर सकता है। भारत के पास अक्षय स्रोत प्रचुर मात्रा में उपल्ब्ध है और मजबूत नीतियों और निवेश के साथ सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, महासागर तरंगों से प्राप्त ऊर्जा, हाइड्रोजन ऊर्जा को विकसित कर अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान की जा सकती है। वहीं विश्व की ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी भारत आगे बढ़ सकता है। ऐसा यदि संभव होता है तो एक ओर जहां अभी भारत ऊर्जा आपूर्ति के लिए आयात पर निर्भर है, वहीं भविष्य में यह ऊर्जा हब बन सकता है और विश्व के अन्य देशों को भी ऊर्जा निर्यात कर सकता है। इससे भारत का विश्व की नीतियों में भी सक्रिय योगदान बढ़ेगा क्योंकि सुदृढ़ अर्थव्यवस्था वाले देशों का वैश्विक नीतियों पर विशेष प्रभाव पड़ता है।
इस बेहतर भविष्य के लिए अभी से कवायद किए जाने की जरूरत है। इसके लिए भारत को अक्षय स्रोतों से प्राप्त ऊर्जाको बढ़ावा देने के साथ-साथ ऊर्जा की बचत भी करनी होगी। वैसे भी भारत अपनी बचत प्रवृत्ति की आदतों के कारण ही वैश्विक मंदी से उबर पाया है। इसके लिए सरकार को सौर ऊर्जा से चलने वाले वाहनों को बढ़ावा देना होगा और सरकार को भी सार्वजनिक वाहनों में निवेश अधिक करना होगा जिससे भारत में सार्वजनिक वाहनों की संख्या बढ़ें और लोग निजी वाहनों के स्थान पर सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग करें। वाहनों की संख्या पर गौर किया जाए तो भारत में जहां वर्ष 1980 में केवल 30 लाख निजी वाहन थे वहीं वर्ष 2005 तक इनकी संख्या 7 करोड़ 20 लाख तक पहुंच गई है और सकल घरेलू उत्पाद में 6 प्रतिशत तक वृद्धि के साथ वर्ष 2030 में निजी वाहनों की संख्या 70 करोड़ 80 लाख तक पहुंचने की संभावना है। वाहनों की संख्या कम करना भी सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन गई है। इसके लिए निजी वाहनों पर करों में वृद्धि करके और सार्वजनिक वाहनों की संख्या में इजाफा कर स्थिति काबू में की जा सकती है। ऊर्जाके क्षेत्र में भारत को मजबूती प्रदान करने के लिए टेरी (द एनर्जी एंड रिसॉर्स इंस्टीट्यूट) ने सरकार को कुछ सुझाव दिए हैं जिसमें सौर ऊर्जा को बढ़ावा देना, कोयला पर से निर्भरता कम कर इसे भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित करना, ग्रामीण क्षेत्रों में जैव आधारित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना शामिल है। टेरी ने एलपीजी, मिट्टी के तेल और बिजली पर दी जाने वाली सब्सिडी को भी खत्म करने की सलाह दी है क्योंकि इसका लाभ आम लोगों तक न पहुंचकर बिचौलियों तक पहुंचता है। टेरी का कहना है कि लोगों को बायोमीट्रिक कार्ड के जरिए सीधा लाभ पहुंचाना चाहिए। वहीं सरकार को भी लोगों को बिजली बचत के प्रति जागरूक करने के प्रयास करने चाहिए ।