Thursday, July 28, 2011

अंकों के दबाव में मौत से लगाव


भारत की मौजूदा शिक्षा नीति और सामाजिक परिवेश के चलते युवाओं की एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है जिनमें आत्मविश्वास की कमी सामने आ रही है। हाल ही में 10वीं एवं 12वीं के छात्रों द्वारा आत्महत्या के कई मामले सामने आए हैं जिनमें ऐसे छात्र-छात्राएं भी शामिल हैं जो अच्छे प्रतिशत से उत्तीर्ण हुए हैं लेकिन आत्महत्या करने वाले यह सभी छात्र अवसादग्रस्त रहे होंगे। किसी ने अभिभावकों की उम्मीदों पर खरा न उतरने के कारण तो किसी ने पसंदीदा कॉलेज में प्रवेश न मिलने के कारण आत्महत्या का कदम उठाया। आज के प्रतिस्पर्धा भरे युग में अपनी जगह बनाने का डर युवाओं को सता रहा है जिसमें हमारी शिक्षा नीति भी जिम्मेदार है।
बेंगलुरू में रहने वाली एक छात्रा ने 85 प्रतिशत अंक आने के बावजूद आत्महत्या की जिसके पीछे कारण था कि वह 90 प्रतिशत अंक चाहती थी और कम अंक आने के कारण उसे अपने पसंदीदा कॉलेज में प्रवेश नहीं मिला था। वहीं राजकोट के एक छात्र ने 10वीं परीक्षा के नतीजे आने से पहले मौत को गले लगा लिया। वह शहर के टॉपर में से एक था लेकिन उसे इस बात का डर सता रहा था कि इस बार उसके अच्छे अंक नहीं आएंगे। जबकि रिजल्ट आया तो पता चला कि 90 प्रतिशत अंकों के साथ वह टॉपर है। इसी प्रकार अन्य छात्रों ने भी परीक्षा में असफल होने या कम अंक आने की वजह से मौत को गले लगा लिया। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा वर्ष 2009 में जारी आंकड़ों के अनुसार देश में प्रतिदिन औसतन 6 छात्र परीक्षाओं में असफल होने के कारण आत्महत्या करते हैं। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2007 में 1976, वर्ष 2008 में 2189 छात्रों ने परीक्षाओं में असफल होने के कारण आत्महत्या की वहीं वर्ष 2009 में कुल 2010 छात्रों ने आत्महत्या की। इनमें से 15-29 वर्ष की आयु वाले छात्रों का आंकड़ा सबसे ज्यादा 1591 है। इससे स्पष्ट होता है कि युवाओं में परीक्षाओं को लेकर ज्यादा तनाव है जिनमें से कुछ इस तनाव के समाधान के रूप में आत्महत्या का विकल्प चुनते हैं। अपने भविष्य को लेकर भी युवा तनावग्रस्त रहते हैं। वर्ष 2007 में अपना कैरियर बनाने में नाकाम 1273 व्यक्तियों ने आत्महत्या की। वहीं वर्ष 2009 में इसका आंकड़ा बढ़कर 1354 हो गया।
आखिर क्यों छात्रों के आत्महत्या करने का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है? इसके पीछे शिक्षा व्यवस्था और सामाजिक परिवेश ही जिम्मेदार नजर आते हैं। देश में विद्यालयों से शिक्षा प्राप्त करने के बाद छात्रों की अपेक्षा होती है कि वह कॉलेज में स्नातक की शिक्षा प्राप्त करें लेकिन सीटें कम होने के कारण और आवेदन ज्यादा होने के कारण इन कॉलेजों की कट-ऑफ भी ज्यादा होती है। इसके कारण अच्छे अंक प्राप्त करने के बावजूद भी छात्रों को प्रवेश नहीं मिल पाता है और उन्हें निराशा हाथ लगती है। पिछले कुछ वर्षों में निस्संदेह विद्यालयों की संख्या बढ़ी है और शिक्षा के प्रति जागरूकता भी आई है, लेकिन विद्यालयों की अपेक्षा विश्वविद्यालयों की संख्या में अभी भी कमी है। राज्य स्तर पर विश्वविद्यालयों की कमी के कारण छात्र उच्च शिक्षा के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं। इन विश्वविद्यालयों में सीटें सीमित होने और आवेदन सीटों की अपेक्षा कहीं अधिक होने के कारण कई छात्रों को प्रवेश नहीं मिल पाता है। परिणामस्वरूप वह तनाव का शिकार हो जाते हैं। विश्वविद्यालयों में सीटें कम होने के कारण 10वीं और 12वीं कक्षा में प्रतिस्पर्धा बढ़ी है।
दूसरी ओर प्रतिस्पर्धा के माहौल में अभिभावकों का भी अच्छे नंबर लाने के लिए दबाव बना रहता है। परीक्षा में अच्छे नंबर न आने के कारण अभिभावक तुलना शुरू कर देते है जिसके कारण छात्र हीन-भावना का शिकार हो जाते हैं। इन्हीं सब कारणों के चलते छात्र आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं। देश के भविष्य का निर्माण करने वाली शिक्षा नीति में व्यापक स्तर पर सुधार की जरूरत है। आज सीबीएसई बोर्ड को देशभर में मान्यता दी हुई है जिसके कारण अन्य बोर्ड पिछड़ रहे हैं। आज राज्य स्तर पर शिक्षा बोर्डों में सुधार की ओर कदम बढ़ाए जाने की आवश्यकता है जिससे वह भी सीबीएसई के समकक्ष शिक्षा व्यवस्था स्थापित कर सकें और पाठ्यक्रम में सुधार कर सकें। दूसरी ओर व्यापक स्तर पर विश्वविद्यालय भी खोले जाने चाहिए जिससे छात्रों को अपने ही राज्यों में उच्च शिक्षा प्राप्त हो सके। वहीं अभिभावकों को भी छात्रों पर अधिक दबाव नहीं डालना चाहिए।
एक ओर तो सरकार सर्व शिक्षा अभियान के कारण अपना सीना गर्व से ऊंचा करके खड़ी है वहीं दूसरी ओर छात्र इतनी बड़ी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं। इसके लिए अवश्य ही कुछ सुधार किए जाने चाहिए अपितु तनावग्रस्त युवाओं के साथ देश के भविष्य का अनुमान लगाया जा सकता है।