Friday, September 23, 2011

गरीबी का उपहास



देश की जनता पर चारों ओर से पड़ रही महंगाई की मार के बीच योजना आयोग ने गरीबी के जो आंकड़ें पेश किए हैं, वह हास्यास्पद हैं। योजना आयोग के अनुसार शहरों में प्रतिदिन 32 रूपये खर्च करने वाला आदमी गरीब नहीं है। वह अपनी मूलभूत आवश्यकताओं जैसे भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा का खर्च अच्छे से उठा सकता है और वह बीपीएल सुविधा पाने का हकदार नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक हलफनामे में योजना आयोग ने कहा कि शहरों में चार लोगों का परिवार यदि माह में 3,860 रूपयों से ज्यादा खर्च करता है तो वह गरीब नहीं है। देश में महंगाई की दुहाई देकर हरदम सरकारी कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि होती रहती है। पिछले साल सांसदों का वेतन जब 50 हजार हुआ तो वह इससे भी संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने महंगाई का रोना रोकर अधिक वेतन की मांग की। उसके बाद से महंगाई में बेतहाशा वृद्धि हुई है और हाल के महीनों में जिस तरह से खाद्य वस्तुओं, गैस, ईंधन और अन्य मूलभूत चीजों के दाम बढ़े हैं शायद योजना आयोग उससे अनभिज्ञ है।
रिपोर्ट के अनुसार एक दिन में एक आदमी प्रतिदिन यदि दाल पर 5.50 रूपये, चावल-रोटी पर 1.02 रूपये दूध पर 2.33 रूपये, तेल पर 1.55 रूपये, साग-सब्जी पर 1.95 रूपये, फलों पर 44 पैसे, चीनी पर 70 पैसे, नमक व मसालों पर 78 पैसे व अन्य खाद्य पदार्थों पर 1.51 रूपये, ईंधन पर 3.75 रूपये खर्च करता है तो वह गरीब नहीं कहा जाएगा और वह आराम से अपना जीवन बिता सकता है। वहीं दूसरी ओर जनता महंगाई की मार से स्तब्ध है। आज दालें 70 रूपये किलो, चावल की कीमत औसतन 22 रूपये किलो, गेहूं 12 रूपये किलो, दूध 27 रूपये लीटर, तेल 75 रूपये लीटर, आलू 15 रूपये किलो, टमाटर 40 रूपये किलो, प्याज 24 रूपये किलो, सेब 100 रूपये किलो, केला 40 रूपये किलो, चीनी 32 रूपये किलो व गैस सिलिंडर 381.14 रूपये (दिल्ली में), अन्य राज्यों में इससे अधिक दामों में मिल रहे हैं। ऐसे में योजना आयोग के यह आंकड़े कांग्रेस के आम आदमी का मखौल उड़ा रहे हैं। यहां नीचे कामकाजी पुरूष, महिला और बच्चे के लिए एक संतुलित भोजन तालिका दी जा रही है।

खाद्य पदार्थ (ग्राम)वयस्क आदमीवयस्क महिलाबच्चा (10-12 वर्ष आयु)
अनाज670675380
दाल605045
हरी सब्जी405050
अन्य सब्जी8010050
फल806020
दूध (मिली)250200250
तेल654035
चीनी554045

उपरोक्त तालिका पर गौर किया जाए तो प्रति वयस्क व्यक्ति का एक समय का भोजन औसतन 65 रूपये, महिला का 60 रूपये व बच्चे का 45 रूपये पड़ेगा।
योजना आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक एक व्यक्ति 49.10 रूपये मासिक किराया देकर आराम से रह सकता है जबकि दिल्ली जैसे शहर में एक छोटे से कमरे का किराया औसतन 5000 रूपये है। रिपोर्ट के अनुसार व्यक्ति 39.70 रूपये प्रति महीने खर्चकर स्वस्थ्य रह सकता है जबकि कई दवाईयां ऊंची कीमतों पर उपलब्ध है। वहीं योजना आयोग ने चप्पल के लिए प्रतिमाह 9.6 रूपये व अन्य निजी सामानों के लिए 28.80 रूपये निर्धारित किए है। आयोग ने यह आंकड़ें बनाते समय तेंडुलकर समिति द्वारा 2004-05 में बनाई गई रिपोर्ट को आधार माना है।
गौर करने वाली बात है कि योजना आयोग की इस रिपोर्ट पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हस्ताक्षर है। मनमोहन सिंह व योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया विगत कई दशकों से योजना आयोग में सदस्य एवं अन्य पदों पर रहे हैं। सवाल उठता है कि इतने वर्षों से योजना आयोग में शामिल रहे यह दोनों अर्थशास्त्री आज भी गरीब की आर्थिक स्थिति से अनभिज्ञ हैं? क्या 3860 रूपये से परिवार चलाया जा सकता है? इसका उत्तर भारत के हर नागरिक को पता है। योजना आयोग ने यह तो बता दिया कि कितने रूपये किस मद पर खर्च किए जाए, लेकिन उसे यह भी बता देना चाहिए कि यह सामान उसके दिए गए दामों पर कहां उपलब्ध होगा।

Wednesday, September 21, 2011

‘सौदेबाजी’ की राह पर पत्रकारिता: अशोक टंडन


भारत में पत्रकारिता ने अपनी शुरूआत मिशनके तौर पर की थी जो धीरे-धीरे पहले प्रोफेशनऔर फिर कमर्शियलाइजेशनमें तब्दील हो गई। आज पत्रकारिता कमर्शियलाइजेशन के दौर से भी आगे निकल चुकी है जिसके संदर्भ में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व निदेशक अशोक टंडन से बातचीत के कुछ अंश यहां प्रस्तुत है।

पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका आगमन कैसे हुआ? इस दौरान आपके क्या अनुभव रहें?

दिल्ली विश्वविद्यालय से जब मैं राजनीति शास्त्र में एम.ए. कर रहा था तो उस समय कुछ पत्रकारों को देखकर इस क्षेत्र की ओर आकर्षण बढ़ा। एम.ए. पूरी करने के बाद वर्ष 1970 में मुझे हिन्दुस्थान समाचार से विश्वविद्यालय बीट कवर करने का मौका मिला। वर्ष 1972 में मैंने पीटीआई में रिपोर्टिंग शुरू की और वहां विश्वविद्यालय, पुलिस, दिल्ली प्रशासन, संसद, विदेश मंत्रालय समेत लगभग सभी बीट कवर की। 28 वर्षों के दौरान मैंने लगभग 28 देशों की यात्राएं की। पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करना चुनौतीपूर्ण होता है।

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पत्रकारिता के आपके क्या अनुभव रहें?

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रकारिता के लिए पहले अपने देश को समझना होता है। भारत में जब वर्ष 1980 के दशक की शुरूआत में नॉन अलाइनमेंट समिट और कॉमनवेल्थ गेम्स समिट हुई तो उसमें रिपोर्टिंग का अवसर मिला। वर्ष 1985 में मुझे विदेश मंत्रालय की बीट सौंपी गई। इस दौरान भारत के प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के साथ विदेश जाने का मौका मिला। वर्ष 1988 में मुझे पीटीआई लंदन का संवाददाता नियुक्त कर दिया गया। जब कोई पत्रकार विदेश में रहकर पत्रकारिता करता है तो उसका फोकस अपने देश पर ही रहता है।

आप पूर्व प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार के रूप में कार्य कर चुके हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय में आपका क्या अनुभव रहा?

वर्ष 1998 में लंदन से जब वापिस आया तो प्रधानमंत्री कार्यालय में काम करने का मौका मिला। इस दौरान अपने साथी पत्रकारों से सहयोग करने का कार्य किया। आमतौर पर पत्रकार मेज के एक तरफ और अधिकारी दूसरी तरफ होता है। यहां मैंने मेज के दूसरी तरफ का भी अनुभव किया। प्रधानमंत्री कार्यालय में रहते हुए देशभर के पत्रकारों व विश्व के कुछ पत्रकारों के साथ सरकार की ओर से वार्तालाप किया जो एक अलग अनुभव रहा।

मीडिया में कमर्शियलाइजेशन का दौर कब से आया?

वर्ष 1947 से पहले पत्रकारिता को मिशनमाना जाता था, वर्ष 1947-75 तक मीडिया में प्रोफेशनका दौर था। आपातकाल के खत्म होने के बाद पत्रकारिता में गिरावट आनी शुरू हो गई थी और वर्ष 1991 से उदारीकरण के कारण मीडिया में कमर्शियलाइजेशनका दौर आया। लेकिन पेड न्यूज के दौर में पत्रकारिता के लिए कमर्शियल शब्द भी छोटा पड़ रहा है।

वर्तमान समय में पत्रकारिता जगत में आप क्या बदलाव देखते हैं?

वर्तमान दौर में सौदेबाजी की पत्रकारिताहो रही है। यदि किसी को मीडिया द्वारा कवरेज करवानी है तो उसका मूल्य पहले से ही निर्धारित होता है। कमर्शियल में समाचार पेडनहीं होता, विज्ञापन के जरिए पैसा कमाया जाता है लेकिन अब पत्रकारिता में डीलहो रही है। जो लोग इसको कर रहे हैं वह इसे व्यावसायिक पत्रकारिता मानते हैं। पत्रकारिता में 10 साल पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। हालांकि पूरा पत्रकारिता जगत ही खराब है, मैं ऐसा नहीं मानता। पत्रकारिता में कुछ असामाजिक तत्वों के कारण पूरे पत्रकारिता जगत पर आक्षेप लगाना सही नहीं है।

वर्तमान समय में जहां चौथे स्तम्भ की भूमिका पर सवालिया निशान खड़े किए जा रहें हैं, ऐसी दशा में क्या आपको लगता है कि इसमें कोई सुधार हो सकता है?

पत्रकारिता के स्तर में गिरावट जरूर आई है। यदि कोई बहुराष्ट्रीय कम्पनी अगर अपना उत्पाद बाजार में लेकर आती है तो उसे मीडिया के माध्यम से समाचार के रूप में प्रस्तुत करवाती है। राजनैतिक दलों द्वारा भी चुनाव के समय मीडिया से डील किया जाता है और संवाददाता के जरिए उम्मीदवार का प्रचार कराया जाता है। पत्रकारिता को बचाने वाले अब कम ही लोग रह गए हैं और अन्य धक्का देकर निकल रहे हैं, लेकिन मीडिया में अब भी कई लोग ईमानदारी से काम कर रहे हैं। पत्रकारिता में अभी स्थिति वहां तक नहीं पहुंची कि कुछ सुधार नहीं किया जा सकता। अच्छी पत्रकारिता आवाज बनकर उठेगी। भारतीय समाज की खूबी है कि यहां कोई भी विकृति अपनी चरम सीमा पर नहीं पहुंचती, उसे रास्ते में ही सुधार दिया जाता है। पत्रकारिता में अब तक जो भी निराशाजनक स्थिति सामने आई है वह अवश्य चिंता की बात है। लेकिन जब सीमा पार होने लगती है तो कोई न कोई उसे अवश्य रोकता है। भारत में पत्रकारिता का भविष्य उज्जवल है।

हाल ही में हुए जन आन्दोलन पर मीडिया कवरेज का क्या रूख रहा?

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया घटना आधारित मीडिया है। घटना यदि होगी तो लोग उसे देखेंगे और इससे चैनल की टीआरपी बढ़ेगी। कुछ लोगों का आरोप है कि मीडिया खुद घटना बनाता है जो काफी हद तक ठीक भी है। प्रिंस जब गड्ढे में गिरा तो उसे तीन दिन तक दिखाया गया जिसके कारण अन्य महत्वपूर्ण खबरें छूट गई। वहीं अन्ना के आंदोलन को भी मीडिया ने पूरे-पूरे दिन की कवरेज दी जो कुछ हद तक सही था क्योंकि आम जनता टेलीविजन के माध्यम से ही इस आन्दोलन से जुड़ी। मीडिया के प्रभाव के कारण यह आन्दोलन सफल हो पाया। हालांकि सरकार ने इस दौरान मीडिया की आलोचना की क्योंकि यह कवरेज उनके पक्ष में नहीं था। मीडिया की कवरेज का ही नतीजा था कि लोगों ने इस आन्दोलन के जरिए अपनी भड़ास निकाली। यदि ऐसा नहीं होता तो इसका परिणाम हानिकारक होता। मीडिया के माध्यम से ही विदेशों में भी लोगों ने इस आन्दोलन को देखा। चीन ने तो चिंता भी व्यक्त की कि भारत का मीडिया चीन के मीडिया को बिगाड़ रहा है। भारत का मीडिया स्वतन्त्र रूप से कार्य करता है। जब मैं प्रधानमंत्री कार्यालय में कार्यरत था तो गर्व महसूस किया कि विदेशों में भारतीय लोकतन्त्र की सराहना की जाती है। वह भारत की न्यायिक स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के कारण भारत के मीडिया को जीवन्त मीडियाकी संज्ञा देते हैं।

विश्व की चार सबसे बड़ी समाचार समितियां विदेशी ही है। क्या आपको लगता है कि उनका प्रभाव भारतीय मीडिया पर भी है?

यह चारों समाचार समितियां बहुराष्ट्रीय हैं और इनका मानना है कि यह स्वतन्त्र पत्रकारिता कर रही हैं लेकिन यह समाचार समिति भी किसी देश की ही है और इनके लिए देश का हित सर्वोपरि होता है। यहां राष्ट्रहित व निजी हित विरोधाभासी है। ए.पी. अमेरिका की प्रतिष्ठित समाचार समिति है। इसे सबसे पहले प्रिंट के लिए शुरू किया गया और 180 देशों में फैलाया गया। इसके पीछे उद्देश्य था कि पूरी दुनिया सूचना के तंत्र को अमेरिका के नजरिए से देखे। चीन भी आर्थिक महाशक्ति बनने के साथ अपनी समाचार समिति शिन्हुआको विश्व में फैला रहा है। वहीं दूसरी ओर भारत आर्थिक महाशक्ति के रूप में तो उभर रहा है लेकिन दुर्भाग्यवश सूचना के क्षेत्र में हम काफी पीछे हैं। सूचना के क्षेत्र में हम पहले की अपेक्षा सिकुड़ रहे हैं। प्रसार भारती, आकाशवाणी व दूरदर्शन पहले से सिकुड़ गए हैं। भारतीय समाचार समितियों की भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। हमारे देश में न तो सरकारी मीडिया का विकास हुआ और न ही समाचार समितियों को विस्तृत होने दिया गया। भारत में स्थित शिन्हुआ के ब्यूरो में 60 व्यक्ति, रायटर्स के ब्यूरो में 250 व्यक्ति व एपी के ब्यूरो में 350 व्यक्ति कार्यरत है। यह समाचार समितियां भारत को विश्व में अपने चश्मे से प्रस्तुत कर रही हैं। जिस तरह भारत के फिल्म उद्योग ने विश्व में अपनी पहचान बनाई है, उसी तरह हमें सूचना के क्षेत्र में भी आगे बढ़ना चाहिए था लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका।

पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के कारण आज अंग्रेजी भाषा का जो प्रचलन बढ़ा है, ऐसे में हिन्दी पत्रकारिता को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है?

हिन्दी पत्रकारिता की हम जब भी चर्चा करते हैं तो हम उसको अंग्रेजी के सामने लाकर खड़ा कर देते हैं जो गलत है। हिन्दी अंग्रेजी की प्रतिस्पर्धी भाषा नहीं है। भारतीय पत्रकारिता ने अंग्रेजी भाषा को कभी भी अपना प्रतिस्पर्धी नहीं माना लेकिन जब भी हिन्दी पत्रकारिता को बढ़ाने की बात की गई तो हमने कह दिया कि अंग्रेजी के कारण ऐसा नहीं हो रहा। पिछले 10 सालों में हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार हुआ है। मैं नहीं मानता कि अंग्रेजी के कारण हिन्दी पत्रकारिता को नुकसान पहुंचा है। शिक्षा मंे बढ़ोतरी के साथ हिन्दी के स्तर में भी वृद्धि हुई है। आज हिन्दी भाषी समाचार चैनलों की संख्या अंग्रेजी भाषी चैनलों से कहीं अधिक है। भारत में अंग्रेजी भाषा वर्ष 1947 से पहले ब्रिटिश शासन की देन है। अमेरिका के महाशक्ति बनने के कारण आज अंग्रेजी वैश्विक भाषा बन गई है। जिन देशों को अंग्रेजी नहीं आती थी, वह अंग्रेजी सीख रहे हैं। भारत को अंग्रेजी का लाभ वर्तमान समय में मिल रहा है।


सुरक्षा जांच में आत्मनिर्भर हो भारत

‘‘सुरक्षा एजेंसियों के पास नक्सलियों और आतंकियों से लड़ने की क्षमता नहीं है’’ यह वक्तव्य प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का है। इससे पहले गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने भी ऐसे ही विचार व्यक्त किए थे। दिल्ली हाईकोर्ट पर हाल ही में हुए आतंकवादी हमले की जांच को लेकर राष्ट्रीय जांच एजेंसी की कार्यप्रणाली से स्पष्ट हो जाता है कि आतंकवाद से भयभीत भारत सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर नहीं है। बम धमाके के संदर्भ में सबूत जुटाने में नाकाम राष्ट्रीय जांच एजेन्सी ने अमेरिकी जांच एजेंसियों सीआईए और एफबीआई से मदद की गुहार लगाई है।

दिल्ली हाईकोर्ट पर हाल ही में हुए हमले के बाद एनआईए के पास सबूत के नाम पर केवल इंडियन मुजाहिदीन द्वारा भेजा गया ई-मेल है, जिसमें उसने बम धमाके की जिम्मेदारी ली थी। जांच अधिकारियों द्वारा आशंका जताई जा रही है कि आतंकवादियों ने स्काइप वेबसाइट के माध्यम से बातचीत की होगी। भारतीय जांच एजेन्सियां इस वेबसाइट के माध्यम से हुई किसी भी बातचीत की निगरानी करने में सक्षम नहीं है। इन्हीं सबको देखते हुए भारत ने अमेरिकी एजेंसियों से जांच के लिए मदद मांगी है। सुरक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर न बनने के कारण ही भारत को अमेरिका की मदद लेनी पड़ रही है जिसके कारण अमेरिका अपने चश्मे से इस मामले की जांच पड़ताल कर सकता है।

भारत के रक्षा बजट की बात की जाए तो वर्ष 2011-12 में यह 1,64,415 करोड़ निर्धारित किया गया है। इसके बावजूद भी भारत जांच के नए संसाधन जुटाने में सक्षम नहीं है और जांच के लिए अब भी विदेशों पर ही निर्भर है।

दुर्भाग्य की बात है कि मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के बाद भी भारत कई हमलों का शिकार हो चुका है। सुरक्षा व्यवस्था में चूक का ही नतीजा है कि आतंकवादी बेखौफ होकर भारत में हमलों को अंजाम दे रहे हैं। एसएटीपी के अनुसार दिल्ली में वर्ष 1997 से लेकर अब तक कुल 31 बम धमाकें हो चुके हैं जिनमें 134 लोगों की जान जा चुकी है। वहीं मुंबई में वर्ष 1993 से लेकर अब तक कुल 14 आतंकवादी हमलें हो चुके हैं जिनमें 708 लोगों की जान गई है। सुरक्षा के नाम पर हर कहीं चार पुलिसवाले तो जरूर नजर आ जाते हैं लेकिन वह जांच के नाम पर औपचारिकता ही निभाते हैं। हमलों के पीछे एक कारण भारत में सजा देने का ढुलमुल रवैया भी नजर आता है। अमेरिका में हुए 9/11 हमले के बाद अमेरिका इतना सतर्क हो गया कि उस पर दोबारा कोई हमला नहीं हुआ। अमेरिका ने अपने ऊपर हुए आतंकवादी हमले का बदला अलकायदा प्रमुख लादेन को मारकर लिया। वहीं भारत ने अपने दुश्मनों अफजल गुरू और कसाब को अभी तक फांसी नहीं दी है।

भारत के पड़ोसी देश भी भारत को घेरने की रणनीति बना रहे हैं। भारतीय सीमाओं पर बार-बार घुसपैठ की कोशिशों के कारण सुरक्षा को लेकर हमारी चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। हमारे प्रमुख पड़ोसी देश चीन द्वारा भारत से लगने वाली लगभग 3488 किमी. लंबी सीमाओं पर से बार-बार घुसपैठ की कोशिश की गई है। वहीं नेपाल की लगभग 1751 किमी. की सीमाएं पूरी तरह खुली हुई हैं। भारत-बांग्लादेश के बीच 4096 किमी. लंबी सीमाएं सुरक्षा बलों के हवाले है लेकिन इन सीमाओं में कई ऐसे दुर्गम क्षेत्र हैं जहां निगरानी संभव नहीं है। पाकिस्तान के साथ 3323 किमी. लंबी सीमा रेखा भारत की चिंता का सबब बने हुए है। गृह मंत्रालय के अनुसार जम्मू कश्मीर में वर्ष 2008 से लेकर अब तक घुसपैठ के मामलों में बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2010 में जम्मू-कश्मीर में कुल 489 घुसपैठ के मामले सामने आए जबकि वर्ष 2009 में यह आंकड़ा 485 और वर्ष 2008 में 342 था।

हालही में आई रिपोर्ट के अनुसार भारतीय रक्षा विशेषज्ञों ने बताया है कि चीन थंडर ड्रैगन 2014’ ऑपरेशन की योजना बना रहा है जिसके तहत वह पाकिस्तान के साथ मिलकर वर्ष 2014 में भारत पर हमला कर सकता है। भारत को अपनी सुरक्षा नीति और नेटवर्क बढ़ाना होगा जिससे वह रक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सके और अपने हमलावरों से निपटने में सक्षम हो सके।