Wednesday, August 17, 2011

मिशन, प्रोफेशन और कमर्शियलाइजेशन...



‘‘एक समय आएगा, जब हिंदी पत्र रोटरी पर छपेंगे, संपादकों को ऊंची तनख्वाहें मिलेंगी, सब कुछ होगा किन्तु उनकी आत्मा मर जाएगी, सम्पादक, सम्पादक न होकर मालिक का नौकर होगा।’’

स्वतंत्रता आंदोलन को अपनी कलम के माध्यम से तेज करने वाले बाबूराव विष्णु पराड़कर जी ने यह बात कही थी। उस समय उन्होंने शायद पत्रकारिता के भविष्य को भांप लिया था। पत्रकारिता की शुरूआत मिशन से हुई थी जो आजादी के बाद धीरे-धीरे प्रोफेशन बन गया और अब इसमें कमर्शियलाइजेशन का दौर चल रहा है।

स्वतंत्रता आंदोलन को सफल करने में पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उस समय पत्रकारिता को मिशन के तौर पर लिया जाता था और पत्रकारिता के माध्यम से निःस्वार्थ भाव से सेवा की जाती थी। भारत में पत्रकारिता की नींव रखने वाले अंग्रेज ही थे। भारत में सबसे पहला समाचार पत्र जेम्स अगस्टस हिक्की ने वर्ष 1780 में बंगाल गजटनिकाला। अंग्रेज होते हुए भी उन्होंने अपने पत्र के माध्यम से अंग्रेजी शासन की आलोचना की, जिससे परेशान गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने उन्हें प्रदत्त डाक सेवाएं बंद कर दी और उनके पत्र प्रकाशन के अधिकार समाप्त कर दिए। उन्हें जेल में डाल दिया गया और जुर्माना लगाया गया। जेल में रहकर भी उन्होंने अपने कलम की पैनी धार को कम नहीं किया और वहीं से लिखते रहंे। हिक्की ने अपना उद्देश्य घोषित किया था- अपने मन और आत्मा की स्वतंत्रता के लिए अपने शरीर को बंधन में डालने में मुझे मजा आता है।

हिक्की गजट द्वारा किए गए प्रयास के बाद भारत में कई समाचार पत्र आए जिनमें ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाजें उठने लगी थी। समाचार पत्रों की आवाज दबाने के लिए समय-समय पर प्रेस सेंसरशिप व अधिनियम लगाए गए लेकिन इसके बावजूद भी पत्रकारिता के उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं आया। भारत में सर्वप्रथम वर्ष 1816 में गंगाधर भट्टाचार्य ने बंगाल गजट का प्रकाशन किया। इसके बाद कई दैनिक, साप्ताहिक व मासिक पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जिन्होंने ब्रिटिश अत्याचारों की जमकर भर्त्सना की।

राजा राम मोहन राय ने पत्रकारिता द्वारा सामाजिक पुनर्जागरण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। ब्राह्मैनिकल मैगजीनके माध्यम से उन्होंने ईसाई मिशनरियों के साम्प्रदायिक षड्यंत्र का विरोध किया तो संवाद कौमुदीद्वारा उन्होंने महिलाओं की स्थिति में सुधार करने का प्रयास किया। मीरात-उल-अखबारके तेजस्वी होने के कारण इसे अंग्रेज शासकों की कुदृष्टि का शिकार होना पड़ा।

जेम्स बकिंघम ने वर्ष 1818 में कलकत्ता क्रोनिकलका संपादन करते हुए अंग्रेजी शासन की कड़ी आलोचना की, जिससे घबराकर अंग्रेजों ने उन्हें देश निकाला दे दिया। इंग्लैंड जाकर भी उन्होंने आरियेंटल हेराल्डपत्र में भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों को उजागर किया।

हिन्दी भाषा में प्रथम समाचार पत्र लाने का श्रेय पं. जुगल किशोर को जाता है। उन्होंने 1826 में उदन्त मार्तण्डपत्र निकाला और अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों की आलोचना की। उन्हें अंग्रेजों ने प्रलोभन देने की भी कोशिश की लेकिन उन्होंने इसे ठुकरा दिया और आर्थिक समस्याओं से जूझते हुए भी पत्रकारिता के माध्यम से राष्ट्रवाद की मशाल को और तीव्र किया।

1857 की विद्रोह की खबरें दबाने के लिए गैगिंग एक्टलागू किया। उस समय स्वतंत्रता आंदोलन के नेता अजीमुल्ला खां ने दिल्ली से पयामे आजादीनिकाला जिसने ब्रिटिश कुशासन की जमकर आलोचना की। ब्रिटिश सरकार ने इस पत्र को बंद करने का भरसक प्रयास किया और इस अखबार की प्रति किसी के पास पाए जाने पर उसे कठोर यातनाएं दी जाती थी। इसके बाद इण्डियन घोष’, ‘द हिन्दू’, ‘पायनियर’, ‘अमृत बाजार पत्रिका’, ‘द ट्रिब्यूनजैसे कई समाचार पत्र सामने आए।

लोकमान्य तिलक ने पत्रकारिता के माध्यम से उग्र राष्ट्रवाद की स्थापना की। उनके समाचार पत्र मराठाऔर केसरीउग्र प्रवृत्ति का जीता जागता उदाहरण है। गांधीजी ने पत्रकारिता के माध्यम से पूरे समाज को एकजुट करने का कार्य किया और स्वाधीनता संग्राम की दिशा सुनिश्चित की। नवभारत’, ‘नवजीवन’, ‘हरिजन’, ‘हरिजन सेवक’, ‘हरिजन बंधु’, ‘यंग इंडियाआदि समाचार पत्र गांधी जी के विचारों के संवाहक थे। गांधी जी राजनीति के अलावा अन्य विषयों पर भी लिखते थे। उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों को भी उजागर कर इसे समाप्त करने पर बल दिया। गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर से प्रतापनामक पत्र निकाला जो अंग्रेजी सरकार का घोर विरोधी बन गया। अरविंद घोष ने वंदे मातरम‘, ‘युगांतर’, ‘कर्मयोगीऔर धर्मआदि का सम्पादन किया। बाबू राव विष्णु पराड़कर ने वर्ष 1920 में आजका संपादन किया जिसका उद्देश्य आजादी प्राप्त करना था।

आजादी से पहले पत्रकारिता को मिशन माना जाता था और भारत के पत्रकारों ने अपनी कलम की ताकत आजादी प्राप्त करने में लगाई। आजादी मिलने के बाद समाचार पत्रों के स्वरूप में परिवर्तन आना स्वाभाविक था क्योंकि उनका आजादी का उद्देश्य पूरा हो चुका था। समाचार-पत्रों को आजादी मिलने और साक्षरता दर बढ़ने के कारण आजादी के बाद बड़ी संख्या में समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन होने लगा। साथ ही रेडिया एवं टेलीविजन के विकास के कारण मीडिया जगत में बड़ा बदलाव देखा गया। स्वतंत्रता से पहले जिस पत्रकारिता को मिशन माना जाता था अब धीरे-धीरे वह प्रोफेशनमें बदल रही थी।

वर्ष 1947 से लेकर वर्ष 1975 तक पत्रकारिता जगत में विकासात्मक पत्रकारिता का दौर रहा। नए उद्योगों के खुलने और तकनीकी विकास के कारण उस समय समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में भारत के विकास की खबरें प्रमुखता से छपती थी। समाचार-पत्रों में धीरे-धीरे विज्ञापनों की संख्या बढ़ रही थी व इसे रोजगार का साधन माना जाने लगा था।

वर्ष 1975 में एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर काले बादल छा गए, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर मीडिया पर सेंसरशिप ठोक दी। विपक्ष की ओर से भ्रष्टाचार, कमजोर आर्थिक नीति को लेकर उनके खिलाफ उठ रहे सवालों के कारण इंदिरा गांधी ने प्रेस से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली। लगभग 19 महीनों तक चले आपातकाल के दौरान भारतीय मीडिया शिथिल अवस्था में थी। उस समय दो समाचार पत्रों द इंडियन एक्सप्रेसऔर द स्टेट्समेनने उनके खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश की तो उनकी वित्तीय सहायता रोक दी गई। इंदिरा गांधी ने भारतीय मीडिया की कमजोर नस को अच्छे से पहचान लिया था। उन्होंने मीडिया को अपने पक्ष में करने के लिए उनको दी जाने वाली वित्तीय सहायता में इजाफा कर दिया और प्रेस सेंसरशिप लागू कर दी। उस समय कुछ पत्रकार सरकार की चाटुकारिता में स्वयं के मार्ग से भटक गए और कुछ चाहकर भी सरकार के विरूद्ध स्वतंत्र रूप से अपने विचारों को नहीं प्रकट कर सकें। कुछ पत्रकार ऐसे भी थे जो सत्य के मार्ग पर अडिग रहें। आपातकाल के दौरान समाचार पत्रों में सरकारी प्रेस विज्ञप्तियां ही ज्यादा नजर आती थी। कुछ सम्पादकों ने सेंसरशिप के विरोध में सम्पादकीय खाली छोड़ दिया। लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी एक पुस्तक में कहा है- ‘‘उन्होंने हमें झुकने के लिए कहा और हमने रेंगना शुरू कर दिया।’’

1977 में जब चुनाव हुए तो मोरारजी देसाई की सरकार आई और उन्होंने प्रेस पर लगी सेंसरशिप को हटा दिया। इसके बाद समाचार पत्रों ने आपातकाल के दौरान छिपाई गई बातों को छापा। पत्रकारिता द्वारा आजादी के दौरान किया गया संघर्ष बहुत पीछे छूट चुका था और पत्रकारिता अब पेशे में तब्दील हो चुकी थी।

भारत में एक और ऐसी घटना घटी जिसने पत्रकारिता के स्वरूप को एक बार फिर बदल दिया। वर्ष 1991 की उदारीकरण की नीति और वैश्वीकरण के कारण पत्रकारिता पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा और पत्रकारिता में धीरे-धीरे कमर्शियलाइजेशनका दौर आने लगा। आम जनता को सत्य उजागर कर प्रभावित करने वाले मीडिया पर राजनीति व बाजार का प्रभाव पड़ना शुरू हो गया। पत्रकारों की कलम को बाजार ने प्रभावित कर खरीदना शुरू कर दिया। वर्तमान दौर कमर्शिलाइजेशन का ही दौर है, जिसमें मीडिया के लिए समाचारों से ज्यादा विज्ञापन का महत्व है। बाजार में उपलब्ध उत्पादों का प्रचार समाचार बनाकर किया जा रहा है। आज समाचार का पहला पृष्ठ भी बाजार खरीदने लगा है। वहीं पिछले कुछ दिनों में पत्रकारिता में भ्रष्टाचार के जो मामले सामने आए उसको देखकर पत्रकारिता का उद्देश्य धुंधला होता नजर आता है। 2जी स्पेक्ट्रम मामले में जिस तरह कुछ पत्रकारों की भूमिका सामने आई उसको देखकर अब आम जन का विश्वास भी मीडिया से हट रहा है।

आजादी से पहले पत्रकारों ने किसी भी प्रलोभनों में आए बिना निःस्वार्थ भाव से अपना कर्तव्य निभाया था। अंग्रेजों द्वारा प्रेस पर रोक लगाने के बाद भी उन्होंने अपनी कलम को नहीं रोका, लेकिन आज परिस्थितियां बदलती नजर आ रहीं हैं। पत्रकारिता आज सेवा से आगे बढ़कर व्यवसाय में परिवर्तित हो चुकी है। यहां पर एक बार फिर पराड़कर जी के वही शब्द याद आते हैं जिनमें उन्होंने पत्रकारिता के भविष्य को भांप लिया था- ‘‘एक समय आएगा, जब हिंदी पत्र रोटरी पर छपेंगे, संपादकों को ऊंची तनख्वाहें मिलेंगी, सब कुछ होगा किन्तु उनकी आत्मा मर जाएगी, सम्पादक, सम्पादक न होकर मालिक का नौकर होगा।’’

कलम का सिपाही, मौत का राही



राष्ट्र की रक्षा के लिए सेना के बाद दूसरा स्थान पत्रकार का आता है। अपनी कलम की ताकत से वह भ्रष्टाचार एवं देश की सुरक्षा पर सेंध लगाने के लिए गिद्ध की तरह नजर गड़ाएं बैठे असामाजिक तत्वों पर अपनी पैनी नजर रख उन्हें उजागर करता है। लेकिन कभी-कभी कलम के सिपाही पत्रकार की खुद की जिंदगी खतरे में पड़ जाती है। सत्य को उजागर करने पर कई लोग उसके जान के दुश्मन बन जाते हैं। विडंबना यह है कि सेना के पास तो आत्मरक्षा के लिए हथियार है लेकिन पत्रकार के पास केवल कलम, जो सत्य उजागर करने के लिए तो एक सशक्त हथियार है लेकिन आत्मरक्षा के लिए नहीं। जब कोई उसकी हत्या के इरादे से उसे निशाना बनाता है तो वह आत्मरक्षा में असमर्थ होता है। पत्रकार को अपना कार्य करते समय यदि कोई मारता है तो मरने के बाद उसे वो सम्मान प्राप्त नहीं होता जो एक सैनिकों को प्राप्त होता है, जबकि दोनों का काम जोखिमपूर्ण और राष्ट्रवाद से ओत प्रोत होता है।

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करने वाले भारत में अभी तक पत्रकारों को सुरक्षा प्रदान करने वाला कोई ठोस कानून नहीं है। सत्य की कलम से लिखने वाले पत्रकार पर मौत का साया हरदम मंडराता रहता है। पत्रकारों की सुरक्षा से संबंधित कानून को जब भी लाने की बात की गई तो उस पर कभी भी गंभीरता से विचार नहीं किया गया। आखिर ऐसा क्या है, जो देश की सत्ता पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं होने देती? क्यों कानून लाने की बात पर वह चुप्पी साध लेती है? भारत के संविधान में जहां सूचना लेने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, वहां इस अधिकार के कई बार हनन के बावजूद सरकार क्यों कुछ नहीं करती? क्या यह लोकतंत्र और मौलिक अधिकारों पर प्रश्न चिन्ह नहीं है?

हाल ही में खोजी पत्रकार ज्योतिर्मय डे की हत्या ने इन प्रश्नों को एक बार फिर से उजागर कर दिया है। डे की दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। अंडरवर्ल्ड की गतिविधियों को उजागर करने वाले डे ने तेल माफियाओं के काले धंधे को भी उजागर किया था। वह चंदन की तस्करी का खुलासा भी करना चाहते थे। इतने बड़े स्तर पर हो रही इन गतिविधियों को उजागर करने की कीमत डे को अपनी जान गंवाकर चुकानी पड़ी। जे डे की हत्या के पीछे कभी तेल माफियाओं ,तो कभी अंडरवर्ल्ड का हाथ बताया जा रहा है । लेकिन सबसे शर्मनाक बात है कि मुंबई सरकार इस हत्याकांड की सीबीआई जांच कराने से मना कर रही है जबकि मुंबई पुलिस से अभी तक यह मामला सुलझ नहीं सका। ज्यादा समय बीतने पर हत्या के आरोपी सभी सबूत मिटाने में सफल हो जाएंगे। आखिर ऐसा क्या है जो सरकार इस मामले की सीबीआई जांच कराने से कतरा रही है? इससे पहले पाकिस्तान के पत्रकार सलीम शहजाद को भी मार दिया गया था। उन्होंने अलकायदा और पाकिस्तानी सेना के बीच संबंधों को उजागर किया था।

पत्रकारों की सुरक्षा के लिए बनी संस्था सीपीजे के मुताबिक भारत में वर्ष 1992 से लेकर अब तक कुल 44 पत्रकार मारे जा चुके हैं,जिनमें से केवल 27 पत्रकारों की मौंत की गुत्थी ही सुलझ पाई है। इन पत्रकारों की सूची नीचे दी गई है।

1. ज्योतिर्मय डे - मिडडे, 11 जून 2011, मुंबई,गोली मारकर हत्या

2. उमेश राजपूत - नई दुनिया, 22 फरवरी 2011, रायपुर,गोली मारकर हत्या

3. विजय प्रताप सिंह- इंडियन एक्सप्रेस, 20 जुलाई 2010, इलाहबाद, कैबिनेट मंत्री नन्द गोपाल गुप्ता पर हुए हमले में मौत

4. हेमन्त पांडे - फ्रीलांसर, 2 जुलाई 2010, आन्ध्र प्रदेश, माओवादियों और पुलिस के बीच मुठभेड़ के दौरान मौत

5. विकास रंजन - हिन्दुस्तान, 25 नवंबर 2008, रौसेरा, मोटरबाइक सवार तीन युवकों द्वारा गोली मारकर हत्या

6. जगजीत सैकिया - अमर असम, 20 नवंबर 2008, असम, गोली मारकर हत्या

7. जावेद अहमद मिर - डेली ट्रिब्यून,13 अगस्त 2008, जम्मू-कश्मीर, अलगाववादियों के प्रदर्शन के दौरान पुलिस मुठभेड़ में मौत

8. अशोक सोढी - डेली एक्सेल्सर, 11 मई 2008, जम्मू-कश्मीर, आतंकी मुठभेड़ के दौरान फोटोग्राफर सोढी की मौत

9. मोहम्मद मुस्लिमुद्दीन - असमिया प्रतिदिन,1 अप्रैल 2008, असम,छः हमलावरों द्वारा गोली मारकर हत्या

10. अरूण नारायण देकाते - तरूण भारत, 10 जून 2006, नागपुर, चार अज्ञात युवकों द्वारा हमला

11. प्रहलाद गौला - असमिया खबर, 6 जनवरी 2006, असम, चाकू मारकर हत्या

12. दिलीप मोहापात्र - अजी कगोज, 8 नवंबर 2004, उड़ीसा, अपहरण कर हत्या

13. असिया जिलानी - फ्रीलांसर, 20 अप्रैल 2004, कश्मीर, बम धमाके में मौत

14. वीराबोएना यदागिरी - आन्ध्र प्रभा, 21 फरवरी 2004, आन्ध्र प्रदेश, चाकू मारकर हत्या

15. परमानंद गोयल - पंजाब केसरी, 18 सितंबर 2003, हरियाणा, तीन अज्ञात युवकों द्वारा गोली मारकर हत्या

16. इंद्रा मोहन हकसम - अमर असम, 24 जून 2003, असम, उल्फा द्वारा अपहरण कर हत्या

17. परवाज़ मोहम्मद सुल्तान - नाफा समाचार संगठन, 31 जनवरी 2003, श्रीनगर, गोली मारकर हत्या

18. रामचंद्र छतरपति - पूरा सच, 21 नवंबर 2002, हरियाणा, गोली मारकर हत्या

19. यम्बेम मेघजीत सिंह - नॉर्थईस्ट विजन, 13 अक्टूबर 2002, मणिपुर, प्रताड़ना के पश्चात गोली मारकर हत्या

20. पारितोष पांडे - जनसत्ता एक्सप्रेस, 14 अप्रैल 2002, लखनऊ,गोली मारकर हत्या

21. मूलचंद यादव - फ्रीलान्सर, 30 जुलाई 2001, झांसी, गोली मारकर हत्या

22. थऊनाओजम ब्रजमणि सिंह - मणिपुर न्यूज, 20 अगस्त 2000, मणिपुर, गोली मारकर हत्या

23. प्रदीप भाटिया - द हिन्दुस्तान टाइम्स, श्रीनगर, 10 अगस्त 2000, बम धमाके में भाटिया समेत छः अन्य पत्रकारों की मौत

24. वी. सेल्वरज - नक्कीरन, 31 जुलाई 2000, तमिलनाडु, चाकू मारकर हत्या

25. अधीर राय - फ्रीलांसर, 18 मार्च 2000, झारखंड, गोली मारकर हत्या

26. एन.ए. लालरूहलू - शान, 10 अक्टूबर 1999, मणिपुर, गोली मारकर हत्या

27. इरफान हुसैन - आउटलुक, 13 मार्च 1999, नई दिल्ली, अपहरण कर चाकू मारकर हत्या

28. शिवानी भटनागर - इंडियन एक्सप्रेस, 23 जनवरी 1999, नई दिल्ली, चाकू मारकर हत्या

29. एस. गंगाधर राजू - ईटीवी, 19 नवंबर 1997, हैदराबाद, कार बम धमाके में मौंत

30. एस. कृष्णा - ईटीवी, 19 नवंबर 1997, हैदराबाद, कार बम धमाके में मौंत

31. जी. राजशेखर - ईटीवी, 19 नवंबर 1997, हैदराबाद, कार बम धमाके में मौत

32. जगदीश बसु - ईटीवी, 19 नवंबर 1997, हैदराबाद, कार बम धमाके में मौत

33. पी. श्रीनिवास राव - ईटीवी, 19 नवंबर 1997, हैदराबाद, कार बम धमाके में मौत

34. सईदन शफि - दूरदर्शन टीवी, 16 मार्च 1997, श्रीनगर, गोली मारकर हत्या

35. अल्ताफ अहमद फक्टू - दूरदर्शन टीवी, 1 जनवरी 1997, श्रीनगर, गोली मारकर हत्या

36. पराग कुमार दास - असमिया प्रतिदिन, 17 मार्च 1996, असम, गोली मारकर हत्या

37. गुलाम रसूल शेख - रहनुमा-ए-कश्मीर, 10 अप्रैल 1996, कश्मीर, अपहरण कर हत्या

38. मुस्ताक अली - एजेन्सी फ्रांस प्रेस, एशियन न्यूज इंटरनेशनल, 10 सितंबर 1995, श्रीनगर,लेटर बम

धमाके में मौत

39. गुलाम मुहम्मद लोने - फ्रीलांसर, 29 अगस्त 1994, कश्मीर, गोली मारकर हत्या

40. दिनेश पाठक - संदेश, 22 मई 1993, बड़ोदा, चाकू मारकर हत्या

41. भोला नाथ मासूम - हिंद समाचार, 31 जनवरी 1993, राजपुर, गोली मारकर हत्या

42. एम.एल. मनचंदा - ऑल इंडिया रेडियो, 18 मई 1992, पंजाब, अपहरण कर हत्या

43. राम सिंह बिलिंग - अज़दी आवाज़, डेली अजीत, 3 जनवरी 1992, जालंधरहिरासत में मौत

44. बख्शी तीरथ सिंह - हिन्द समाचार, 27 फरवरी 1992, धुरी अज्ञात युवकों द्वारा हत्या

इन पत्रकारों में से अधिकतर पत्रकारों की हत्या गोली मारकर की गई है। अपहृत हुए पत्रकारों को तो बुरी तरह से प्रताड़ित किया गया है। इसके अलावा पत्रकारों पर हमलों की खबरें तो आती ही रहती है। हाल ही में यूपी पुलिस द्वारा किया गया पत्रकार पर हमला, छत्तीसगढ़ में असामाजिक तत्वों द्वारा पत्रकारों पर हमलों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।

पत्रकारिता की नींव राष्ट्रवाद, समाज के सही दिशा निर्माण और लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए रखी गई थी। पत्रकारों को संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों की धारा 19(1) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। इसी के तहत वह निर्भीकतापूर्वक अपनी बात को देश के सामने रखता है। लेकिन पत्रकारों की इस स्वतंत्रता को चोट पहुंचाई जा रही है और उसकी आवाज को दबाने का पुरजोर प्रयास किया जा रहा है। यह संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार का उल्लंघन तो है ही, लोकतंत्र पर भी आघात है। यदि इसी तरह पत्रकारों पर हमलों की घटनाएं होती रही तो बहुत कम पत्रकार निर्भीक छवि वाले बचेंगे। ऐसी स्थिति में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भी लड़खड़ा जाएगा। आज पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और इससे सम्बन्धित उपयोगी कानून लाने की जरूरत है जिससे पत्रकार निर्भीकतापूर्वक अपने विचार व्यक्त कर सकें।

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मीडिया समाज हित से कट गया है- जवाहर लाल कौल


पत्रकारिता के बदलते स्वरूप और उसमें आई विसंगतियों के कारण आज पत्रकारिता एवं पत्रकारों पर कई तरह के लांछन लगाए जा रहे हैं। आज पत्रकारों एवं समाचार-पत्रों द्वारा व्यक्तिगत एवं संस्थागत लाभ के लिए सामाजिक एवं राष्ट्रीय हित के साथ-साथ सामुदायिक कल्याण की भावना के साथ भी खिलवाड़ किया जा रहा है। क्या ऐसे में पत्रकारिता को जनचेतना एवं परिवर्तन का औजार बनाने वाले क्रांतिकारी पत्रकारों द्वारा स्थापित परंपरा के प्रति न्याय हो रहा है? स्वाधीनता दिवस की 64वीं वर्षगांठ पर जाने माने पत्रकार जवाहर लाल कौल जी से इस विषय पर उनकी राय जानने का हम प्रयास कर रहे हैं।

प्रश्न 1. 60 के दशक में पत्रकारिता में ऐसा क्या आकर्षण रहा जो आप इस क्षेत्र में आए? इस क्षेत्र में आपका कैसा अनुभव रहा?

उत्तर- पत्रकारिता में आने से पहले मैं सामाजिक संस्थाओं में काम करता था। इसलिए मुझे ऐसा लगा कि पत्रकारिता के माध्यम से मैं समाज के प्रति अपने सेवा भाव को पूरा कर सकता हूं। उस समय पत्रकारिता में जितना आज आकर्षण है, जैसे मनोरंजन, शान-ओ-शौकत और जो दूसरी चीजें दिखाई देती हैं, वह नहीं था। फिर भी उस समय यह आकर्षण था कि इसमें व्यक्ति अपने मन की बात दूसरों को सुना सकता है और सामाजिक दायित्व पूरा कर सकता है। इसीलिए मैं इस क्षेत्र में आया।

प्रश्न 2. पत्रकारिता के शुरूआती दौर से लेकर अब तक पत्रकारिता जगत में आप क्या बदलाव देखते हैं?

उत्तर- जब मैं पत्रकारिता में आया था तो पत्रकारिता में जो मिशन की भावना थी, समाज व उद्देश्य के प्रति काम करने की इच्छा थी वो कुछ-कुछ जीवित थी। पत्रकारिता में वे ही लोग आते थे जो समाज को कुछ देने की इच्छा रखते थे, कठिन परिस्थितियों में भी काम कर सकते थे। पारिवारिक जीवन की असुविधाओं को भी झेल सकते थे। तब तथ्य के साथ खिलवाड़ करना गलत माना जाता था। पत्रकारों का काम सच्चाई को सामने लाना और अपनी ओर से कम से कम प्रतिक्रिया देना होता है, लेकिन धीरे-धीरे पत्रकारिता में व्यापार का तत्व बढ़ने लगा। अखबारों का उत्पादन महंगा हो गया। इसका असर पत्रकारिता पर पड़ा। संचालक व मालिक मानने लगे कि समाचार पत्र उद्योग है और इसका काम पैसा कमाना है। पैसा कमाने के लिए लोगों को आकर्षित करना होता है जिसके चलते पत्रकारिता में एक शब्द आया इन्फोटेन्मेंटया सूचनारंजन। इसमें भी धीरे-धीरे सूचना तत्व कम होता गया और मनोरंजन का तत्व बढ़ता गया। इसीलिए सच्चाई और तथ्य पिछड़ते गए। सामान्य पत्रकार और संपादक भी तथ्यों के साथ खिलवाड़ करने की छूट पाने लगे। एक और महत्वपूर्ण बात इसी बीच हुई-टेलीविजन का प्रसार। किसी जमाने में अखबारी भाषा को दूसरे दर्जे की भाषा कहा जाता था। जर्नलिस्टिक लैंग्वेजको हल्का-फुल्का माना जाता था जिसे टेलीविजन ने और हल्का कर दिया। भाषा तथ्यों पर आधारित न होकर अतिरंजना पर आधारित हो गई। पत्रकारिता ग्लैमर का व्यवसाय बन गई, ऐसे व्यवसाय में पैसे का लोभ होना स्वाभाविक है, इसीलिए पत्रकारिता समाजोन्मुख नहीं रह गई है।

प्रश्न 3. जम्मू-कश्मीर पर आपने गहन अध्ययन किया है। क्या आपको लगता है कि देश के अन्य भागों में रहने वाले नागरिकों को वहां की वास्तविक जानकारी समाचार पत्रों व चैनलों के माध्यम से हो पा रही है? अगर नहीं तो क्या और कैसे होना चाहिए?

उत्तर- मीडिया व्यापक समाज हित से कट गया है। बड़े अखबार केवल उन्हीं पाठकों तक पहुंचना चाहते है जो पाठक महंगे संसाधनों को खरीद सकते हैं और जिनके कारण बड़े-बड़े विज्ञापन प्राप्त हो सकते हैं। जिन्हें हम राष्ट्रीय समाचार पत्र कहते हैं उनमें इस बात की होड़ होती है कि वह अधिक से अधिक आर्थिक रूप से संपन्न शहरी खरीदारों को ही जुटाएं। स्पष्ट है कि समाचार देते वक्त या घटनाओं पर अपना मत व्यक्त करते समय ऐसे ही पाठकों या वर्गों का हित सर्वोपरि होता है। इस तरह समाचार देने से पूरे देश के संदर्भ में हो रही घटनाओं का सही-सही चित्रण संभव नहीं है। जम्मू-कश्मीर के सिलसिले में समाचार पत्रों में अधिकतर उन ही वर्गों और गुटों के बारे में समाचार आते हैं जो हिंसा का सहारा लेते हैं, जो नकारात्मक गतिविधियों में लिप्त हैं या जो चौंकाने वाले बयान देते हैं। इस तरह जो चित्र बनता है वो न तो पूरा होता है, न सच्चा। जम्मू-कश्मीर के बारे में मीडिया की भूमिका अक्सर उत्तरदायित्वपूर्ण नहीं रही है जिससे देश के अन्य क्षेत्रों के लोगों में अनेक तरह की भ्रांतियां पैदा हो गई हैं।

प्रश्न 4. जम्मू-कश्मीर की ऐसी क्या स्थिति है जो मीडिया द्वारा सामने नहीं लाई जा रही है?

उत्तर- जम्मू-कश्मीर में कई तरह के लोग रहते हैं। उत्तर-पश्चिमी पहाड़ों में लद्दाख का बहुत बड़ा क्षेत्र है जहां का प्रमुख धर्म, बौद्ध धर्म है। दक्षिण में जम्मू का विशाल क्षेत्र है। घाटी और जम्मू की पहाड़ियों में गुजर और बकरवाल रहते हैं। कश्मीर घाटी में भी दो मुस्लिम संप्रदाय के लोग हैं-शिया और सुन्नी। इन सब में केवल सुन्नी संप्रदाय का एक वर्ग भारत विरोधी गतिविधियों में सक्रिय है और कुछ लोग हिंसक राजनीति कर रहे हैं। यानि पूरे राज्य की आबादी के 10 प्रतिशत लोगों की गतिविधियां ही मीडिया की रूचि का विषय है। शेष सभी वर्गों की आवाज अनसुनी कर दी जाती है।

प्रश्न 5. जम्मू-कश्मीर की स्थानीय मीडिया के बारे में आपकी क्या राय हैं?

उत्तर- जम्मू-कश्मीर की त्रासदी है कि कश्मीरी भाषा की कोई लिपि नहीं है। जो प्राचीन लिपि थी, वह शारदाकहलाती थी। आजादी के बाद वहां के सत्ताधारियों ने उर्दू, फारसी पर आधारित एक लिपि का विकास किया लेकिन यह लिपि अवैधानिक होने के कारण नहीं चल पाई। परिणामतः प्राचीन और संपन्न होने के बावजूद कश्मीरी में लोकप्रिय पत्रकारिता पनप नहीं पा रही। वर्तमान समय में जितने भी समाचार पत्र वहां छप रहे हैं वह उर्दू या अंग्रेजी भाषा में हैं। इसीलिए आम लोगों तक पत्रकारिता नहीं पहुंच पा रही है।

प्रश्न 6. जम्मू-कश्मीर के समाचार पत्रों का क्या दृष्टिकोण हैं?

उत्तर- वहां भी पत्रकारिता का वही रूप है जो देश में है। अलग-अलग हितों के पत्र-पत्रिकाएं मौजूद हैं। कुछ अलगाववादियों का समर्थन करते हैं, तो कुछ राष्ट्रीय दृष्टिकोण को सामने लाते हैं। इनमें भी क्षेत्रीय विभिन्नता है। कश्मीर की पत्र-पत्रिकाएं अलगाववाद से प्रभावित है जबकि जम्मू में राष्ट्रीय पक्ष को प्रमुखता दी जाती है।

प्रश्न 7. वर्तमान विदेश नीति को आप किस प्रकार देखते हैं?

उत्तर- वर्तमान विदेश नीति में किसी सकारात्मक पहल का सर्वथा अभाव है। विदेश नीति किसी देश की सुरक्षा नीति का आयाम होती है, लेकिन दुर्भाग्य से इस समय भारत चारों ओर से ऐसे देशों से घिरा हुआ है जो शत्रुवत व्यवहार कर रहे हैं। बड़े देशों की बात तो अलग, नेपाल, बांग्लादेश जैसे छोटे देश भी भारत के हितों के विपरीत नीतियां अपना रहे हैं। यह हमारी विदेश नीति की असफलता का सबसे बड़ा प्रमाण है कि भारत अपने ही आंगन में अकेला पड़ गया है।

प्रश्न 8. पत्रकारिता और बाजार के बीच संबंधों पर आपने गहन अध्ययन किया है। आपकी राय में बाजार किस तरह पत्रकारिता को प्रभावित कर रहा है?

उत्तर- पत्रकारिता बाजार का ही हिस्सा है। जिस समय पत्रकारिता एक मिशन थी, उस समय पत्रकार एक सामाजिक कार्यकर्ता भी हुआ करता था। अब महंगी टेक्नोलॉजी और व्यापक प्रसार संख्या के कारण मीडिया पर पूंजीपतियों और व्यापारिक निगमों का वर्चस्व हो गया है। इसलिए आज के उपभोक्ता समाज में मीडिया बाजार पर न केवल आश्रित है बल्कि बाजार के हितों का संरक्षण करती है।

प्रश्न 9. प्रधानमंत्री मनामोहन सिंह ने मीडिया पर आरोप लगाया है कि ‘‘मीडिया देश की समस्याओं को लेकर जजकी भूमिका अदा कर रहा है।’’ क्या सरकार मीडिया पर नियंत्रण करने की कोशिश कर रही है?

उत्तर- सरकार को मीडिया पर नियंत्रण करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि सरकार जिस उपभोक्तावाद का स्वयं प्रसार कर रही हैं उसी उपभोक्तावाद का माध्यम देश के अखबार भी है। सरकार इस बात को समझती है कि मीडिया को परोक्ष रूप से प्रभावित करना आसान है लेकिन प्रत्यक्ष नियंत्रण सरकार के लिए भी खतरनाक हो सकता है।

प्रश्न 10. व्यवस्था परिवर्तन को लेकर देशभर में चल रही बहस पर मीडिया के नजरिए को आप किस परिप्रेक्ष्य में देखते हैं?

उत्तर- व्यवस्था परिवर्तन मीडिया के लिए एक खबर है। वर्तमान व्यवस्था को बदलने की न तो मीडिया में इच्छा है और न ही क्षमता।

प्रश्न 11. ‘न्यूज ऑफ द वर्ल्डसाप्ताहिक पत्र के बंद होने की घटना को मूल्य आधारित पत्रकारिता की समाप्ति की घोषणा मान सकते है?

उत्तर- ऐसी सारी पत्रिकाओं के बंद होन से ये तो पता लगता ही है कि मुनाफे के इस व्यापार में केवल सामाजिक दायित्व का काम करना कितना कठिन हो गया है।

प्रश्न 12. आपके विचार में भारत की भावी दिशा क्या होनी चाहिए और यह कैसे संभव है?

उत्तर- जब 1947 में हमारा देश आजाद हुआ तो हमने अपनी दिशा तय नहीं की क्योंकि हमने ऐसी व्यवस्था अपना ली जो पहले से बनी हुई थी। हम लगभग उसी दिशा में चल रहे थे जिसमें आजादी से पहले चलते थे। इसीलिए अगर देश को बदलना है तो यह मानकर चलना होगा कि जिस तरह की व्यवस्था अपनानी है वह यहीं की परिस्थितियों, यहीं की मनीषा और यहीं के सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित हो सकती हैं। दिशाएं स्वयं बनाई जाती हैं, आयातित नहीं होती।



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