Friday, February 24, 2012

मीडिया से मल्टी-मीडिया बनी पत्रकारिता: बलदेव भाई

भारतीय पत्रकारिता व्यावसायिकता की दौड़ में अपने कर्तव्यों से विमुख होती जा रही है। प्रौद्योगिकी के विकास और भारी पूंजी के चलते पत्रकारिता पहले मीडिया में तब्दील हुई और अब यह मल्टी मीडिया बन गई है। मीडिया के इस बदलते स्वरूप पर पांचजन्य के संपादक बलदेव भाई से बातचीत के प्रमुख अंश:

पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका आगमन कैसे हुआ?

पत्रकारिता सामाजिक जिम्मेदारी निभाने का सबसे सार्थक माध्यम है, यह मानकर मैं इस क्षेत्र में आया। मेरे कुछ वरिष्ठ जनों का मार्गदर्शन मुझे इस क्षेत्र में मिला और मैं धीरे-धीरे पत्रकार बनता चला गया।

पत्रकारिता के क्षेत्र में आपके क्या संघर्ष रहे?

पत्रकारिता में मैं उस समय आया जब यह क्षेत्र व्यावसायिक रूप में इतना प्रचलित नहीं हुआ था। तब पत्रकार बनने के पीछे एक सामाजिक दायित्व होता था, कुछ मकसद रहता था कि इसके माध्यम से देश व समाज के लिए तथा विशेषकर उन वर्गों के लिए जिनकी आवाज सामान्यतः दबी रहती है, काम किया जा सकता है। पत्रकारिता के क्षेत्र में वह लोग ज्यादा आते थे जिनको लगता था कि सामाजिक जिम्मेदारियों के निर्वहन में पत्रकारिता एक सशक्त माध्यम है। उस समय दूसरे तरीके के संघर्ष थे। कम साधनों में ज्यादा काम करना पड़ना था। लोग कम थे। कई प्रकार की कठिनाइयां उठानी पड़ती थी। वेतन इतना कम था कि लोग पत्रकार बनने के लिए लालायित नहीं होते थे, जिस प्रकार से आज हैं। आज पत्रकारिता में वेतन, सुविधाएं और रूतबा बढ़ गया है। अब तो कम्प्यूटर पर सारा कार्य कर लिया जाता है, उस समय हैन्ड कम्पोजिंग का दौर था। प्रूफ पढ़ना और फिर गलतियां सुधरवाना बहुत कठिन था। उस समय प्रतिस्पर्धात्मक संघर्ष ज्यादा नहीं था लेकिन काम की प्रकृति को लेकर काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता था।

पत्रकारिता में संघर्ष के दौरान आपका कोई रोचक अनुभव?

जब मैं ग्वालियर स्वदेशमें था तो एक बार रिपोर्टिंग के लिए जा रहा था। रास्ते में इंद्रगंज थाने पर मैंने देखा कि 8-10 लोग खड़े थे। वहां एक महिला रो-रो कर थानेदार से कह रही थी कि ’’मेरी बेटी 20 दिन से गायब है, जवान है, मेरी मदद कीजिए’’। पुलिस वाले मदद करने के बजाय कह रहे थे कि वह भाग गई होगी। यह देखकर मैं बुढि़या को अपने कार्यालय ले आया। मैंने अपने क्राइम रिपोर्टर को बुलाया। बुढि़या ने बताया कि वह शहर में मजदूरी करने आई है, उसका एक पड़ोसी जो कि धनी था, उसकी बेटी पर बुरी नजर रखता था। बुढि़या ने आगे बताया कि उसी लड़के ने मेरी बेटी को उठाया है और पुलिसवालों ने उससे पैसे खाए हैं। हमने 3-4 दिन तक इस खबर को छापा जिसके बाद एसएचओ डर गया और 2 दिन में मामला सुलझ गया।

वर्तमान पत्रकारिता के दौर में आप क्या बदलाव देखते हैं?

वर्तमान में बहुत कुछ बदल गया है। पत्रकारिता पहले मीडिया बनी और अब यह मल्टीमीडिया बन गया है। सामाजिक क्षेत्र में मीडिया का प्रभाव बहुत बढ़ गया है। अब कोई चीज उसकी नजरों से अछूती नहीं रह सकती। उसका बहुत विस्तार हो गया है। मीडिया अब तकनीक पर आधारित हो गया है जिसके कारण इसकी पहुंच बहुत दूर तक हो गई है। इसके कुछ सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक प्रभाव भी हैं। तकनीकी प्रभाव के कारण इसकी गति बहुत तेज हो गई है, जिसके कारण इसकी पहुंच बढ़ गई है। यह बदलाव कई दृष्टियों से सकारात्मक भी है।

क्या मीडिया अपने पत्रकारीय मूल्यों से भटक रहा है?

यह पूरी तरह से जनअवधारणा बन गई है कि पत्रकारिता की शुरूआत जिन मूल्यों व जिन सामाजिक प्रतिबद्धता के लिए और जिस राष्ट्र के नवनिर्माण के भाव को लेकर हुई, वह लुप्त हो रहे हैं। एक समय में मिशन कहा जाने वाला मीडिया अब मिशन से हट कर पूरी तरह व्यावसायिक हो गया है। यह अलग बात है कि व्यावसायिकता में दौड़ते हुए भी मीडिया कुछ काम ऐसे कर जाता है जो उस मिशन की थोड़ी संवर्द्धना करता है, लेकिन मीडिया की दृष्टि पैसा कमाना ही रहती है। स्वाधीनता आन्दोलन में मीडिया सबसे सशक्त माध्यम था। स्वाधीनता आन्दोलन के लगभग सभी नेताओं ने पत्रकारिता के माध्यम से ही जनजागृति उत्पन्न की। उस समय पत्रकारिता के साथ राष्ट्रीय भावना जुड़ी हुई थी और स्वाधीनता के बाद भी आशा जताई जा रही थी कि राष्ट्र के नवनिर्माण में भी मीडिया की भूमिका बदले हुए रूप में सामने आएगी लेकिन दुर्भाग्य से स्वाधीनता के बाद धीरे-धीरे पत्रकारिता का मिशन लुप्त होता चला गया। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कहा करते थे कि ‘‘पत्रकारिता पहले मिशन थी, फिर प्रोफेशन हुई और अब सेंसेशन हो गई।’’ अब तो पत्रकारिता सेंसेशनिज्म में लगी हुई है यानि सनसनी पैदा करके लोगों को अपनी ओर आकर्षित करना और ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना। मीडिया में अनेक विदेशी कंपनियों का पैसा लगा हुआ है जिसने मीडिया की पूरी दृष्टि बदल दी है। मीडिया अब जनता की आवाज बनने वाला सशक्त माध्यम नहीं रहा। अब तो अखबारों में होड़ रहती है कि पेज 3 को किस तरह ज्यादा से ज्यादा आकर्षक बनाया जा सकता है। जबकि भारत की 80 प्रतिशत जनसंख्या का पेज 3 से कोई लेना-देना नहीं है। मीडिया अभिजात्य वर्गों के लिए मनोरंजन बन गया है।

क्या मीडिया अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों को सही ढंग से निभा पा रहा है?

मीडिया का अभी भी मानना है कि यह अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों को सही ढंग से निभा रहा है लेकिन इसके क्रियाकलापों को देखकर ऐसा नहीं लगता। पिछले दिनों नीरा राडिया का मामला जब सामने आया तो कितनी दुर्भाग्य की स्थिति बनी कि कई ऐसे बड़े पत्रकार जिन्हें लोग आदर्श समझते थे, वह सत्ता की दलाली में संलिप्त पाए गए। उनकी भूमिका यहां तक देखी गई कि कौन मंत्री बने और कौन किस पद पर विराजमान हो। यह राष्ट्रीय भाव से नहीं बल्कि निजी लाभ के लिए हुआ। सत्ता के गठजोड़ से पैसा, प्रतिष्ठा, पद कमाने के लिए हुआ। आज राष्ट्रीय मीडिया अपने उद्देश्यों से भटका हुआ है। बल्कि छोटे शहरों के पत्रकार व मीडिया संस्थान राष्ट्रीय उद्देश्यों के प्रति जिम्मेदार दिखाई देते हैं।

हाल ही में सरकार की ओर से मीडिया पर कई टिप्पणियां आई है, क्या सरकार इस तरह मीडिया को दबाना चाहती है?

कोई भी सरकार नहीं चाहती कि मीडिया स्वतंत्र और सशक्त हो। बिहार में कई वर्षों पहले जगन्नाथ मिश्र की सरकार ने मीडिया पर शिकंजा कसने व काला कानून बनाने का प्रयास किया व आपातकाल के समय इंदिरा गांधी ने पूरी ताकत मीडिया को कुचलने में लगा दी। सरकार भी मीडिया नियमन का प्रयास कर रही है लेकिन मीडिया भी सरकार के इस प्रयास को बल देता है। मीडिया को अपनी आचार संहिताओं का पालन करना चाहिए और मीडिया पर कयास लगाने के मौके नहीं देने चाहिए।

मजीठिया आयोग की सिफरिशों से आप कहां तक सहमत हैं?

पालेकर आयोग से लेकर अब तक जितने आयोग बने हैं, वह सब पत्रकारों के हितों को ध्यान में रखकर हैं। इससे पहले पत्रकारों की काम करने की शर्तें, उनके वेतन, सुविधाएं नगण्य थी लेकिन इन आयोगों ने चिंता जाहिर की कि विविध क्षेत्र में जोखिमपूर्ण कार्य करने वाले पत्रकारों के आर्थिक हितों की सुरक्षा की जाए और इसीलिए इन आयोगों ने, चाहे वह पालेकर आयोग हो, बछावत आयोग हो या मजीठिया आयोग हो, सबने पत्रकारों की आर्थिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए सिफारिशें प्रस्तुत की। यह सभी सिफारशें उपयोगी हैं और इन्हीं के कारण पत्रकारों की स्थितियों में सुधार आया है। मजीठिया आयोग की सिफारिशों को भी लागू किया जाना चाहिए।

दैनिक और साप्ताहिक समाचार पत्र में क्या अंतर है?

दैनिक और साप्ताहिक समाचार पत्र के उद्देश्य में बहुत अंतर नहीं है, कार्यशैली में व्यापक अंतर है। दैनिक समाचार पत्र एक प्रकार से समाचारों पर आधारित काम में जुटा हुआ है और इसमें काम का दबाव बहुत ज्यादा रहता है। उसकी डैडलाइन की चिंता करनी पड़ती है। संख्या बहुत अधिक होने के कारण दैनिक समाचार पत्रों में प्रतिस्पर्धा का दबाव बहुत ज्यादा रहता है। कल पर कुछ नहीं टाला जा सकता, जो करना है आज ही करना होता है। दैनिक समाचार पत्र की पूरी टीम पूरे समय दबाव में रहकर काम करती है। साप्ताहिक समाचार पत्र में थोड़ी फुर्सत रहती है, लेकिन इसमें जिम्मेदारी यह रहती है कि पूरे सप्ताह में जो भी घटित हुआ है, उसका विश्लेषणात्मक वर्णन अपने पाठकों तक पहुंचाना होता है। इसमें चुनौती रहती है कि सम्पूर्णता के साथ विषय पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है या नहीं, लेकिन काम का दबाव इसमें कम रहता है।

मीडिया की भावी दिशा क्या होनी चाहिए?

मीडिया की प्रारम्भिक या भावी एक ही दिशा होनी चाहिए कि वह समाज व देश के लिए समर्पित होकर कार्य करे और उसके प्रयासों से समाज में विघटन, अलगाववाद व अराजकता की स्थितियां खत्म होनी चाहिए और देश में एक ऐसा वातावरण तैयार होना चाहिए जिससे असामाजिक तत्वों को बल न मिले। अगर मीडिया इतना सशक्त हो जाएगा तो देश की समस्याएं भी खत्म हो जाएगी। हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद ने साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक प्रस्तुत किया है जो इतना खतरनांक है जिसमें हिन्दुओं को घोषित अपराधी मान लिया गया है। कुछ राष्ट्रीय मीडिया को छोड़ दें तो किसी भी मीडिया संस्थान ने लोगों को इस विधेयक के प्रति जागरूक करने का प्रयास नहीं किया। मीडिया अगर सतर्क नहीं होगा तो देश की सत्ता पर बैठे लोग अपने वोट बैंक के लिए देश को खतरे में डाल सकते हैं। भारतीय पत्रकारिता की नींव को ध्यान में रखकर वर्तमान में भी मीडिया को राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए। पत्रकारों को मीडिया की शक्ति का दुरूपयोग करने से बचना चाहिए।

पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाले नवागंतुकों को आप क्या संदेश देना चाहते हैं?

मीडिया में आने वाले नवागंतुकों को सबसे पहले मैं बधाई देना चाहता हूं। उन्हें मीडिया में ग्लैमर और मीडिया की शक्तियों का दुरूपयोग करने से बचना चाहिए। मीडिया के भविष्य को बचाने की जिम्मेदारी उन्हीं के हाथों में है। वह सामाजिक प्रतिबद्वता, देश की सेवा व नवनिर्माण की भावना लेकर मीडिया के क्षेत्र में आए। नए लोगों को अध्ययन में अपनी रूचि बनानी पड़ेगी, बिना अध्ययन के हम अपने विचारों को सशक्त नहीं कर सकते।

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