Wednesday, April 27, 2011

जम्मू-कश्मीर समाधान के लिए एकजुट हो देश


1947 में जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर का भारत में संपूर्ण विलय कर दिया था, लेकिन तत्कालीन नेताओं की ढुलमुल नीतियों से जम्मू-कश्मीर की समस्या विकसित हो गई । जम्मू-कश्मीर विवाद को लेकर सरकार ने आज तक कई समझौतें किए हैं और नीतियां बनाई हैं जो असफल हुई है । इन सबके चलते अलगाववादी ताकतों का मनोबल बढ़ा है जिसके कारण उनकी मांगे बढ़-चढ़ कर सामने आ रही है । वह जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करने की मांग खुलेआम कर रहे हैं जिस पर हमारी केन्द्र सरकार खामोश बैठी है । हालत यह है कि राजनीतिज्ञों, अलगाववादियों व विश्व ताकतों ने मिलकर ऐसा माहौल बना दिया है जिसे देखकर प्रतीत होता है कि छोटे-मोटे समझौतों के अलावा जम्मू-कश्मीर विवाद का कोई हल नहीं है । अलगाववादियों ने मिलकर इसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया है जिसे हमारी सरकार ने परोक्ष रूप से स्वीकार किया है ।


जम्मू-कश्मीर विवाद

भारत-पाक के बीच जम्मू-कश्मीर विवाद अपना हित साधने के लिए पश्चिमी ताकतों की ही देन है । उनका मत था कि जम्मू-कश्मीर विवादित मुद्दा बना रहेगा तो दोनों देशों के बीच उनका दखल बना रहेगा । भारत को दो भागों में बांटने की योजना आजादी से पहले ही बना ली गई थी । ब्रिटिश साम्राज्य चाहता था कि देश छोड़ने के बाद भी यहां उनका आर्थिक और राजनीतिक दखल बना रहे । यदि सरकार ने जम्मू-कश्मीर विवाद में किसी निश्चित रणनीति के तहत काम किया होता तो यह मुददा आसानी से सुलझ सकता था।


1947 से पहले जम्मू-कश्मीर की सीमा अफगानिस्तान, पाकिस्तान, चीन, रूसी गणराज्य, तिब्बत और भारत से लगती थीं । उस समय कहा जाता था कि ‘यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां 6 साम्राज्य मिलते हैं’। अंग्रेजों ने भी अपने शासनकाल के पहले 100 सालों के बाद इस क्षेत्र का महत्व समझ लिया और उन्होंने यहां विशेष ध्यान देना शुरू किया । ब्रिटिशों ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह से इस क्षेत्र को मांगा था, लेकिन महाराजा ने यह देने से इनकार कर दिया । इसके बाद जम्मू-कश्मीर में अंग्रेजों द्वारा एक गिलगित एजेंसी बनाई गई जिसमें वहां के सभी रजवाड़ों को जोड़ दिया गया । अंग्रेजों ने हरिसिंह के साथ 60 वर्षों का समझौता किया जिसके तहत गिलगित एजेंसी में शासन तो हरिसिंह का था लेकिन सैनिक वहां ब्रिटिश तैनात थे । समझौते का कार्यकाल पूरा होने से पहले ही वर्ष 1947 में भारत को आजादी मिल गई और सैनिकों ने गिलगित एजेंसी महाराजा की पूर्वानुमति के बिना ही पाकिस्तान को सौंप दी जिस पर आज तक पाक का कब्जा है । इसी क्षेत्र में चीन ने दखलअंदाजी कर अपनी चौकी और सड़क मार्ग बनाया है । जम्मू-कश्मीर विवाद को आजादी के समय ही सुलझाया जा सकता था लेकिन महाराजा और तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के बीच व्यक्तिगत अहंकार के कारण उन्होंने इस क्षेत्र को विवादित छोड़ दिया । वहां पर रणनीतिक तौर पर सीजफायर लागू करना सबसे बड़ी गलती थी । भारतीय सेना को यदि 48 या 72 घंटों तक लड़ने दिया होता तो भारतीय सेना सीमा तक पहुंच जाती और मुजफ्फराबाद, गिलगित भी आज भारत के कब्जे में होता। एक तथ्य और ध्यान देने वाला है कि 1947 में पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर में कोई समर्थन नहीं था लेकिन हमारे राजनीतिज्ञों की गलत नीतियों का ही नतीजा है कि पाक का समर्थन वहां धीरे-धीरे बढ़ता गया ।

26 अक्टूबर 1947 को महाराजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय कर दिया था । 27 अक्टूबर 1947 को लार्ड माउण्टबेटन ने विलय पत्र स्वीकार तो किया लेकिन उन्होंने इसके जवाब में एक पत्र लिखकर जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की बात कही । 1 नवंबर 1947 को उन्होंने लाहौर में मोहम्मद अली जिन्ना से बातचीत करते हुए जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने की बात स्वीकार की जिससे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने भी अपनी सहमति जताई । जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने का अधिकार लार्ड माउण्टबेटन के पास नहीं था क्योंकि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय उसी तरह किया गया जिस तरह अन्य रियासतों का। भारतीय स्वाधीनता अधिनियम के तहत किसी भी रियासत को भारत या पाक में शामिल होने की स्वतंत्रता थी। इसी अधिनियम के तहत महाराजा हरिसिंह ने भी जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय किया । भारतीय स्वाधीनता अधिनियम के तहत यदि कोई जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय मानने से इनकार करता है तो उसे भारत और पाकिस्तान का विभाजन भी अस्वीकार करना होगा ।


अस्थायी अनुच्छेद-370

अस्थायी अनुच्छेद-370 के कारण ही जम्मू-कश्मीर और भारत के अन्य राज्यों के बीच एकात्मक संबंधों में बाधा आई है । इस अनुच्छेद के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य भारत से अलग प्रतीत होता है । 17 अक्टूबर 1949 को कश्मीर मामलों के मंत्री गोपालस्वामी अयंगार ने संविधान सभा में अनुच्छेद 306(ए) (वर्तमान 370) प्रस्तुत किया । उस समय कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में अनुच्छेद-370 के समर्थन में अयंगार और मौलाना अबुल कलाम आजाद के अलावा और कोई नहीं था । नेहरू के सम्मान में सरदार पटेल को इस अनुच्छेद का समर्थन करने के लिए सामने आना पड़ा और कांग्रेस ने नेहरू की इच्छा का सम्मान करते हुए इस अनुच्छेद को संविधान में जोड़ दिया । अनुच्छेद 370 को जम्मू-कश्मीर में कुछ विशेष परिस्थितियों के अंतर्गत लाया गया था और स्थितियां सामान्य होने पर इसे खत्म करने की बात थी । संविधान सभा द्वारा विलय पत्र का अनुमोदन किए जाने के बाद इसकी आवश्यकता नहीं थी क्योंकि जम्मू-कश्मीर का विलय भी भारत में अन्य रियासतों की तरह हुआ था लेकिन भारत के राजनीतिज्ञों ने मिलकर इस विवादित अनुच्छेद को संविधान में जोड़ दिया।


अनुच्छेद-370 के प्रावधानों के अनुसार

• संसद को जम्मू-कश्मीर के बारे में रक्षा, विदेश मामले और संचार के विषय में कानून बनाने का अधिकार है लेकिन किसी अन्य विषय से संबंधित क़ानून को लागू करवाने के लिए केंद्र को राज्य सरकार का अनुमोदन चाहिए।
• इसी विशेष दर्जें के कारण जम्मू-कश्मीर राज्य पर संविधान की धारा 356 लागू नहीं होती।
• इस कारण राष्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बरख़ास्त करने का अधिकार नहीं है।
• 1976 का शहरी भूमि क़ानून जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता।
• इसके तहत भारतीय नागरिक को विशेष अधिकार प्राप्त राज्यों के अलावा भारत में कही भी भूमि ख़रीदने का अधिकार है। यानी भारत के दूसरे राज्यों के लोग जम्मू-कश्मीर में ज़मीन नहीं ख़रीद सकते हैं।
• भारतीय संविधान की धारा 360 जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है, वह भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती।

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 का फायदा केवल राजनीतिक पार्टियों और व्यापारियों को मिल रहा है। जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ तो अन्याय ही हो रहा है । अनुच्छेद-370 ने जम्मू-कश्मीर को आर्थिक लिहाज से पंगु बना दिया है । जम्मू-कश्मीर औद्योगिकीकरण के लिहाज से पिछड़ा हुआ है । स्थानीय लोगों के पास भी रोजगार के अवसर उपलब्ध नहीं है । जम्मू-कश्मीर भ्रष्ट राज्यों में शीर्ष पर है । वहां सबसे ज्यादा कर चोरी, अनुदान चोरी आदि के मामलें सामने आते है । अनुच्छेद 370 के दुष्परिणाम नीचे दिए गए हैं ।
अनुच्छेद 370 पूरे देश के नागरिकों के साथ भेदभाव करता है । इसके अनुसार जम्मू-कश्मीर का नागरिक भारत का नागरिक है लेकिन भारत का नागरिक जम्मू-कश्मीर का नहीं ।
• देशभर में पंचायत राज है जिसमें चुनाव होते है लेकिन जम्मू-कश्मीर में पंचायतों का निर्णय राज्य सरकार लेती है ।
• आजादी के बाद पश्चिम पाकिस्तान से आए हिन्दू शरणार्थी नागरिकता के मूल अधिकारों से वंचित है । इनमें अधिकतर हरिजन और पिछड़ी जातियों के लोग है । इन्हें सरकारी नौकरी, संपत्ति क्रय करने और स्थानीय निकायों में चुनाव का अधिकार नहीं है । इनके बच्चे छात्रवृत्ति से दूर है । इसी प्रकार देश के दूसरे हिस्सों से आए पुलिस व प्रशासनिक अधिकारी भी नागरिकता के अधिकारों से वंचित हैं ।
• 1956 में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री बख्शी गुलाम मुहम्मद ने जम्मू शहर में सफाई व्यवस्था में सहयोग करने के लिए अमृतसर से 70 बाल्मिकी परिवारों को बुलाया था । उन्हें आज तक अन्य नागरिकों की तरह समान अधिकार नहीं मिले हैं । उनके बच्चें उच्च शिक्षा पाने के बावजूद भी सफाई के ही पात्र है ।
अनुच्छेद 370 महिला विरोधी भी है । जम्मू-कश्मीर की कोई महिला यदि दूसरे राज्य में शादी करती है तो उसके जम्मू-कश्मीर में प्राप्त अधिकार स्वतः समाप्त जाते है ।
अनुच्छेद 370 के पक्ष में सरकार यह तर्क देती है कि इसे हटाने से देशभर के मुसलमान नाराज हो जाएंगे । लेकिन प्रश्न उठता है कि अनुच्छेद 370 से अन्य राज्यों के मुस्लिम क्यों नाराज होंगे ? देशभर में लागू संविधान जो पूरे देश के मुस्लिमों के हित में है वो जम्मू-कश्मीर के मुस्लिमों के हित में क्यों नहीं है?


विस्थापितों की स्थिति

जम्मू-कश्मीर विस्थापितों की भूमि बन गई है और वहां के विस्थापितों के साथ लगातार अन्याय हो रहा है । आजादी के 63 वर्षों बाद भी वह गुलामी की जिंदगी जी रहे हैं । उनको वहां न तो जमीन खरीदने का अधिकार है, न ही सरकारी नौकरी प्राप्त करने का । इनके बच्चे भी छात्रवृत्ति के अधिकारों से वंचित हैं । 1947 के बाद पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से लगभग 50 हजार परिवार विस्थापित होकर भारत आए, आज जिनकी जनसंख्या 12 लाख है । इनमें से ज्यादातर संख्या हिंदुओं की थी । सरकार ने पीओके से आने वाले विस्थापितों को उनकी ज़मीनों का कोई मुआवजा नहीं दिया है । इसके पीछे कारण यह है कि किसी को यह न लगे कि भारत ने पीओके से दावा छोड़ दिया है । सरकार ने इन लोगों को एक्स-ग्रेशिया देने का निर्णय किया जिसमें शर्त रखी गई कि विस्थापितों के परिवारों का मुखिया होना चाहिए । लेकिन सरकार की सूची में आज तक इन परिवारों का कोई मुखिया दर्ज नहीं है । साथ ही सरकार ने कहा कि ज्यादा आय वालों को एक्स-ग्रेशिया नहीं दिया जाएगा । इस प्रकार सरकार ने किसी भी प्रकार का मुआवजा देने से अप्रत्यक्ष रूप से अपने हाथ खींच लिए । इसी प्रकार पश्चिमी पाक के 2 लाख शरणार्थी, छम्ब विस्थापित (1971 में शिमला समझौते में पाकिस्तान को दिए जाने वाले क्षेत्र के विस्थापित, जिनकी संख्या लगभग 1 लाख है), कश्मीरी हिन्दू (लगभग 3.5 लाख) भी नागरिकता के मूल अधिकारों से वंचित हैं । सरकार विस्थापित हिंदू परिवारों के लिए फ्लैट्स भी केवल 100-150 के समूह में बनाती है जबकि कश्मीर में हिंदुओं की भूमि पर एक-साथ 10 हजार फ्लैट बनाए जा सकते है । इसके पीछे कारण यह है कि वह हिंदुओं को इकट्ठा नहीं होने देना चाहती ।


5 कार्य समूह

सरकार ने माना कि जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम जनता के साथ अन्याय हो रहा है । सरकार ने उनका समर्थन हासिल करने के लिए राउंड टेबल कांफ्रेंस बनाई जिसमें सभी पर्टियों के प्रतिनिधि बैठक के दौरान अपने विचार व्यक्त करते थे । 25 मई 2005 को आयोजित दूसरी राउंड टेबल कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विभिन्न विषयों पर विचार करने के लिए 5 कार्य समूहों की घोषणा की । इन कार्य समूहों की रिपोर्ट का समेकित रूप से विश्लेषण किया जाए तो इन्होंने अलगाववादियों की मांग से भी ज्यादा सिफारिश कर डाली । इन्होंने उपद्रवग्रस्त क्षेत्र विशेषाधिकार कानून एवं सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाने, 20 साल से पाक अधिकृत कश्मीर में रह रहे आतंकवादियों के वापस आने पर आम माफी और उनका पुनर्वास, नियंत्रण रेखा के आर-पार के विधायकों का साझा नियंत्रण समूह, परस्पर दूरसंचार की सुविधा और सीमा पार आवागमन की खुली छूट आदि सुझाव दिए ।

पिछले साल जम्मू-कश्मीर में हुई गोलीबारी के बाद संयुक्त संसदीय समिति ने भी जम्मू-कश्मीर का दौरा किया । जहां मीरवाईज और गिलानी जैसे अलगाववादियों ने कश्मीर को पाक में मिलाने का राग अलापा। सरकार ने जम्मू-कश्मीर पर फैसले के लिए अधिकार प्राप्त समूह की जरूरत महसूस की जिसके बाद दिलीप पडगांवकर, राधा कुमार और एम.एम. अंसारी को वार्ताकार के तौर पर नियुक्त किया गया । असल में सरकार ने कानूनी तौर पर अपनी बात मनवाने के लिए वार्ताकार नियुक्त किए जिससे लोग उनके फैसलों का ज्यादा विरोध न करें । यह वार्ताकार भी अलगाववादियों की ही भाषा बोल रहे हैं । इन्होंने जम्मू-कश्मीर समस्या के निवारण के लिए पाक के साथ वार्ता पर बल दिया है । वार्ताकारों की रिपोर्ट में कुछ सुझाव आने की संभावना है जिसमें यह भारत और पाक दोनों के कश्मीर को अधिक स्वायत्ता देने का सुझाव दे सकते है । साथ ही एक ऐसा समूह बनाने की मांग कर सकते है जो भारत और पाक अधिकृत दोनों कश्मीर में सेवाओं को देखे जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य आदि । यदि ऐसा होता है तो भारत के कश्मीर और पीओके से कोई भी एक-दूसरे के स्थान पर आ-जा सकता है । ऐसे में मामूली पारदर्शिता होने के चलते पाकिस्तान से और भी बहुत कुछ आ सकता है जिसका भारी खामियाजा भारत को भुगतना पड़ सकता है।

कश्मीर समस्या के समाधान के लिए जरूरी है कि अनुच्छेद 370 और अलग झंडे के प्रावधान को हटाया जाए क्योंकि यह जम्मू-कश्मीर राज्य को पूरे देश से पृथक करते है । अनुच्छेद 370 को संसद द्वारा पारित किया गया था और संसद ही इसे हटा सकती है । लोकसभा दो-तिहाई बहुमत से इस अनुच्छेद को हटा सकती है लेकिन इसके लिए जम्मू-कश्मीर विधानसभा से दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता है । अब यहां एक प्रश्न उठता है कि विधानसभा की शक्तियां गवर्नर के पास होती है । क्या गवर्नर की सिफारिश पर अनुच्छेद 370 को हटाने के लिए लोकसभा में विधेयक नहीं पारित किया जा सकता है?


यह कार्य थोड़ा कठिन जरूर है लेकिन इसके लिए जम्मू-कश्मीर के लोगों समेत पूरा देश एकजुट हो तो सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है । इसके लिए देश भर के लोगों को यह सोचना होगा कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है । जम्मू-कश्मीर के लोगों को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त है जबकि अन्य राज्यों के नागरिकों को नहीं । जम्मू-कश्मीर के नागरिक पूरे देश के नागरिक है लेकिन पूरे देश के नागरिक जम्मू-कश्मीर के नहीं । पूरा देश एकजुट हो जाता है तो सरकार पर अस्थायी अनुच्छेद 370 को हटाने के लिए दबाव बनाया जा सकता है ।
अतः कश्मीर समस्या के हल के लिए पूरे देश को सोचना होगा क्योंकि सरकार के लिए जम्मू-कश्मीर प्राथमिकता नहीं है उनके लिए चुनाव प्राथमिकता है । हां सरकार पर यदि चुनावी तौर पर दबाव बनाया जाए तो वह इस समस्या पर विचार कर सकती है, वरना इसकी संभावाना न के बराबर है ।


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