16 दिसंबर 2012 का मनहूस दिन, इसी दिन दिल्ली में निर्भया के साथ एक अमानवीय घटना घटित
हुई थी जिसने मानवता को शर्मसार कर दिया था। इस घटना ने एक बार फिर से महिलाओं की
सुरक्षा का मुद्दा एक बार फिर सामने ला दिया। 16 दिसंबर तब था तब चारों ओर लोगों के अंदर गुस्सा था और समाज
का प्रत्येक व्यक्ति केवल उस लड़की को इंसाफ दिलाने को उत्सुक था, वही 16 दिसंबर आज है, किन्तु 2014,
जहां समाज के कुछ व्यक्ति ठेकेदार की भूमिका
में सामने निकलकर आ रहे हैं और स्वयं को ‘अति बुद्धिजीवी’ श्रेणी में दिखाकर
रेप के कारणों के लिए महिलाओं को जिम्मेदार ठहराने से नहीं चूक रहे और लगे हाथ
अपनी सलाह देकर स्वयं को जागरूक दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।
अब जरा कुछ
सवालों के जवाब तलाशते हैं। निर्भया कांड के बाद सुरक्षा के कितने इंतजाम हुए हैं?
रेप मामालों में कमी आई है या बढ़ोत्तरी?
किसी भी महिला के साथ छेड़छाड़ जैसी घटना होने
पर भी समाज के ये ठेकेदार लोग क्यों नपुंसक बनकर देखते रहते हैं? और फिर ठेकेदारी करने से क्यों नहीं चूकते?
किसी भी महिला के साथ अमानवीय घटना होने पर
कितने लोग इंसाफ की गुहार लगाते हैं?
शायद इन सबका
जवाब हम सभी जानते हैं। रेप के पीछे कुछ तथाकथिक बुद्धिजीवियों की राय है कि यह
महिलाओं के आधुनिक होने के कारण हो रहा है। उनके कपड़े, उनकी नौकरी, उनका बाहर रहना
या किसी दोस्त अथवा सहेली मिलना इत्यादि। उन्हीं लोगों से एक सवाल यह भी है कि वो
इतना गौर से केवल यही देखते हैं कि किसी महिला ने कितने छोटे कपड़े पहने हैं या वह
रात को किसके साथ अथवा कितने बजे हैं? वो इतनी रात को बाहर क्या कर रहे हैं क्योंकि महिलाओं को बचाने का मामला तो आज
तक नहीं सुनाई दिया? अब यहां महिलाओं
को घूर वो रहे हैं या कोई और? तो क्या ये भी अपराध
की श्रेणी में नहीं है? या फिर महिलाओं
का पुरूषों को भी पीछे छोड़ना उन्हें रास नहीं आ रहा और जलन में वह कह रहे हैं कि ‘‘जो हो रहा है अच्छा हो रहा है। अपनी बेडि़यों
को तोड़ने की इन्हें यही सजा मिलनी चाहिए।’’
आज सबसे ज्यादा लफ्फाजी महिलाओं
के कपड़ों को लेकर होती हैं कि यह उकसाने का काम करते हैं। अब यहीं सवाल यह भी आता है कि रेप कि शिकार लड़कियों में
से कितनों के बारे में आपने सुना है कि उन्होंने कपड़े ऐसे पहने थे या उन बच्चियों
का क्या जिनकी मासूमियत को तार तार करने से भी ये रेपिस्ट बाज नहीं आते। वहीं
पुरुषों की ओर ध्यान दे तो जगह जगह खुले में सबके सामने शौच करने पर उन पर प्रश्न
क्यों नहीं उठता? तब समाज के ये ठेकेदार क्यों चुप रहते हैं?
आज जब हम
आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं, वहीं महिलाओं को
लेकर आज भी दकियानूसी विचारधारा रास नहीं आती। जब लोग रात को पब या डिस्क जैसी जगह
पर अपनी महिला मित्रों के साथ नाचते नजर आते हैं तो वह आधुनिकता की चादर ओढ़ लेते
हैं लेकिन जब बात आती है उनकी पत्नी अथवा बहनों की तो क्यों सभ्यता, भारतीयता जैसी बातों का पाठ पढ़ाया जाता है?
महिलाओं को लेकर ये दोगुलापन किस बात का?
मैं यहां आप
लोगों को कोई सलाह नहीं देना चाहती कि सुरक्षा के कड़े इंतजाम हो या कुछ और। बस इन
अति ‘बुद्धिजीवियों’ व ‘आधुनिक कम दकियानूसी’ पुरूषों से ये
जरूर कहना चाहती हूं कि एक बार स्वयं को महिलाओं के स्थान पर रखकर जरूर सोचे कि वह
किन परिस्थितियों का सामना करके अपने वजूद को बनाती व बचाती है और जिंदगी के हर
कदम पर अपनी जिम्मेदारियों (जैसे विवाह के समय माता-पिता से दूर, बच्चों को जन्म देना, उन्हें पालना-पोसना व अन्य कई जिम्मेदारियां) को कैसे
निभाती हैं।
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