Monday, October 17, 2011

राजनीतिक पत्रकारिता में कोई दम नहीं: अरविन्द घोष



विदेशों में भारतीय पत्रकारिता की नींव को मजबूत करने वाले व आपातकाल में भी चौथे स्तम्भ की मशाल को जलाए रखने वाले यशस्वी पत्रकार अरविन्द घोष से बातचीत के प्रमुख अंशः

पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका आगमन कैसे हुआ?

विज्ञान विषय में स्नातक करने के पश्चात् मैंने 2-3 सरकारी नौकरियां की लेकिन इनमें रचनात्मकता के अभाव के कारण मैं निराश हो गया। एकनाथ रानाडे ने मुझे हिन्दुस्थान समाचार में भेजा जहां श्री बालेश्वर अग्रवाल ने मुझे पटना में अंग्रेजी डेस्क के लिए भेज दिया। पटना में हिन्दुस्थान समाचार के संवाददाता के तौर पर मैंने 1 जनवरी 1958 से पत्रकारिता की शुरूआत की। वहां से एक महीने बाद मुझे काठमांडु भेज दिया गया।

नेपाल में पत्रकारिता करते समय आपके क्या अनुभव रहे?

नेपाल में 15 दिसंबर 1960 को एक घटना हुई। नेपाली कांग्रेस पार्टी के नेता बिश्वेश्वर प्रसाद कोइराला (बी.पी.) 1959 में लोकतांत्रिक तरीके से प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए थे। नेपाल के राजा महेन्द्र शाह ने 15 दिसंबर 1960 को बी.पी. की सरकार भंग करके उन्हें और नेपाली कांग्रेस के अन्य नेताओं को जेल में डलवा दिया। एक कार्यक्रम के दौरान उन सबको सेना के द्वारा गिरफ्तार किया गया, इसके साथ ही अन्य नेताओं को भी जेल में भेज दिया गया। उस समय नेपाल में भारत से मैं अकेला भारतीय पत्रकार था जो मौके पर मौजूद था। यह एक एक्सक्लूसिव स्टोरी थी जिससे मुझे काफी प्रसिद्धि मिली। नेपाल से मैंने पीटीआई, स्टेट्समैन और लंदन टाइम्स के लिए रिपोर्टिंग की। 10 वर्ष नेपाल में रहने के बाद माधवराव मुले ने मुझे दिल्ली बुला लिया। दिल्ली आकर मैंने मदरलैंडमें काम शुरू किया।

बांग्लादेश में आजादी के संघर्ष के दौरान आपका कोई महत्वपूर्ण संस्मरण?

बांग्लादेश की आजादी के दौरान हम वहां रिपोर्टिंग के लिए गए थे। एक दिन बांग्लादेशियों ने 6-7 पठान सैनिकों को मार गिराया और उनको गाड़ दिया। कुत्ते उनकी हड्डियां खा रहे थे। मैं इस दृश्य की फोटो लेने के लिए अपने सहकर्मी के साथ पूर्वी पाकिस्तान की सीमा में चला गया, लेकिन जब लौट रहा था तो एक पुलिसवाला पूछताछ करने लगा-‘‘आप कहां गए थे, कैसे गए थे, आपके पास पासपोर्ट नहीं है’’। एकदम से मैंने कहा कि हमें अवामी लीग पार्टी के सांसद ने भेजा है। उस समय वह भारत के त्रिपुरा में थे। हमारा मकसद पुलिसवाले को भारतीय सीमा तक लाना था और वह सीमा तक आ गया। भाग्यवश वह सांसद हमारी ओर आ रहा था और उन्होंने पुलिसवाले को डांट दिया कि यह पत्रकार हमारी मदद कर रहे हैं और तुम इन्हें तंग कर रहे हो। इतने में हम भारतीय सीमा के अंतर्गत आ चुके थे। बांग्लादेश का यह अनुभव काफी भयानक था। वह हमें गोली भी मार सकता था। उस दौरान अनेक पत्रकार लापता हुए थे।

मदरलैंडसमाचार-पत्र सरकार विरोधी तीव्र स्वर के लिए चर्चा में रहा, इसमें आपकी क्या भूमिका रही?

मदरलैंड केवल 1 वर्ष ही चल सका, लेकिन इस दौरान पत्रकार के तौर पर मुझे बहुत संतुष्टि प्राप्त हुई। इसके माध्यम से हम सरकार के नकारात्मक पहलुओं को उजागर किया करते थे। मदरलैंड विपक्ष का समाचार-पत्र बन गया और बहुत कम समय में यह समाचार-पत्र प्रसिद्ध हुआ। मदरलैंड इंदिरा गांधी की सरकार का कड़ा आलोचक था जिस पर सेंसरशिप की मार पड़ी। आपातकाल लागू होने से एक दिन पहले 24 जून 1975 की रात को इंदिरा गांधी सरकार ने समाचार-पत्रों की बिजली बाधित कर दी। कार्यालय से घर पहुंचते ही फोन आया कि मदरलैंड के संपादक केवल रतन मल्कानी जी को गिरफ्तार कर लिया गया है। यह खबर मिलने के तुरन्त बाद हम कार्यालय पहुंचे और इसके बारे में लिखना शुरू कर दिया और रात 1:30 बजे के करीब अचानक कार्यालय में अंधेरा छा गया। मैंने सभी को कहा कि ‘‘अब घर जाना चाहिए, लोकतंत्र खत्म हो गया।’’ अगले दिन सुबह आकाशवाणी के समाचार बुलेटिन में समाचार वाचक के स्थान पर स्वयं इंदिरा गांधी ने आकर आपातकाल की घोषणा की और प्रेस पर सेंसरशिप ठोक दी। इसके बाद जब मैं कार्यालय पहुंचा तो वहां एक भी संवाददाता नहीं था। मैंने हार नहीं मानी और सेंसरशिप को ताक पर रखकर आपातकाल के विरोध में लिखना शुरू कर दिया। उस दिन मुझे महसूस हुआ कि मदरलैंड का यह आखिरी संस्करण होगा। मैंने मुख्य स्टोरी लिखनी शुरू कर दी। मेरे साथ उस दिन उपेन्द्र कपूर ने भी काम किया और हमने रात की प्रतीक्षा न करते हुए दोपहर 2 बजे के करीब पृष्ठ छोड़ दिया। इस संस्करण की हजारों प्रतियां बिकी और कुछ समय बाद यह ब्लैक में बिकनी शुरू हो गई। अगले दिन हम इस पत्र का 12 बजे डाक संस्करण निकालने वाले थे लेकिन 11 बजे पुलिस आ गई और उन्होंने सब कुछ बंद कर दिया।

पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करते हुए किस विषय में आपकी रूचि सबसे अधिक रही?

आपातकाल के बाद मैंने हिन्दुस्तान टाइम्स में काम शुरू किया। वहां मैंने अनुभव किया कि राजनीतिक पत्रकारिता में कोई दम नहीं है। उस समय मैं गर्मियों में राजस्थान के मरूस्थलीय क्षेत्रों में जाया करता था। वहां की जीवन शैली ने मुझे काफी प्रभावित किया। इसके बाद मेरा रूझान विकासात्मक, कृषि, जल संसाधनों और भारतीय रेलवे विषयक पत्रकारिता में होने लगा। सबसे ज्यादा मैं विकासात्मक विषयों पर लिखता था।

वर्तमान मीडिया में आप क्या परिवर्तन देखते हैं?

तकनीकी विकास के कारण आज मीडिया नई ऊंचाइयों को छू रहा है। मैं जब नेपाल में था तो कार्यालय तक समाचार पहुंचाने के लिए टेलीग्राम भेजने में डेढ़ घंटे का समय लग जाता था। नेपाल में रिपोर्टिंग के दौरान पहले टेलीग्राम भेजने की होड़ लगी हुई थी। एक कार्यक्रम के दौरान मैंने टाइपराइटर रखा हुआ था जिसे चलाने के लिए एक आदमी भी था। जीप वाले को बोला कार्यक्रम खत्म होते ही मैं दौड़कर आऊंगा और पीछे से कूदकर चढ़ जाऊंगा, तुम इंजन चालू रखना। हमने ऐसा ही किया और जब टेलीग्राम कार्यालय पहुंचे तो देखा वहां एक अमेरिकी पत्रकार पहले से पहुंचा हुआ था, मैं दूसरे नंबर पर था। इसी तरह मॉस्को में मैं साम्यवाद की समाप्ति देखने के लिए गया था। तब टेलेक्स के आने से समाचार भेजना थोड़ा आसान हो गया था। आज तकनीकी के आने से पत्रकारिता में क्रांति आई है। कम्प्यूटर के माध्यम से समाचार तुरन्त भेजा जा सकता है।

मास्को में साम्यवाद की समाप्ति के दौरान आपके क्या अनुभव रहे?

मास्को में रिपोर्टिंग करना मेरे लिए काफी संतोषजनक रहा। मास्को में साम्यवाद की समाप्ति के बाद विश्व के अन्य देशों में भी यह खत्म होना शुरू हुआ। मास्को में साम्यवाद के खिलाफ आवाज उठा रहे लाखों लोगों को मार दिया गया था, लेकिन उसका अंत अप्रत्याशित रूप से हुआ। दो लड़कों की मौत के कारण साम्यवाद खत्म हो गया जो आश्चर्यजनक था। साम्यवाद के विरोध में वह टैंक के आगे खडे़ हो गए। दो गोलियां चली जिसमें उन दोनों युवकों की मौत हो गई और भीतर से खोखला हो चुका साम्यवाद खत्म हो गया।

हाल ही में भारत में हुए जन-आंदोलनों को आप किस परिप्रेक्ष्य में देखते हैं?

जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की स्मृति एक बार फिर ताजा हो गई। हाल ही में अन्ना व बाबा रामदेव का आंदोलन भी भ्रष्टाचार के विरोध में था। जयप्रकाश नारायण से लेकर अन्ना के आंदोलन तक ने लोकतंत्र की मजबूती का परिचय दिया। इसका यही अर्थ है कि भारत में लोकतंत्र की मशाल जलती रहेगी और जब भी तानाशाही दिखाने की कोशिश की जाएगी तो इस तरह के आंदोलन होते रहेंगे।

वर्तमान मीडिया की कार्यप्रणाली से क्या अपेक्षा है?

वर्तमान समय में राजनीति से संबंधित सामग्री बहुत अधिक प्रस्तुत की जाती है। मेरे विचार में राजनीति और विकास को अलग रखना चाहिए। केवल राजनीति को वरीयता देना ठीक नहीं है। राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का विश्लेषण होना चाहिए। इसके अलावा समाचार-पत्रों एवं चैनलों को तथ्यपरक रिपोर्ट प्रस्तुत करने चाहिए और समाचारों में अपने विचार देने से बचना चाहिए।

भाषाई पत्रकारिता पर अंग्रेजी भाषा का क्या प्रभाव पड़ रहा है?

हिन्दी भाषा का धीरे-धीरे अंग्रेजीकरण हो रहा है। हिन्दी समाचार-पत्रों में अंग्रेजी के नाम व शब्दों का प्रयोग अब सामान्य हो गया है। समाचार-पत्रों, चैनलों व रेडियो में कई बार ऐसे अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग होता है जिनका हिन्दी शब्द नहीं मालूम होता। ऐसे में श्रोता या पाठक उसे समझ लेता है। बांग्ला व मराठी में अंग्रेजी का प्रभाव काफी कम है। हिन्दी में उर्दू का प्रभाव अधिक है जिसे देखकर प्रतीत होता है कि हिन्दी को उर्दू का दासी बना दिया गया है जबकि हिन्दी भाषा को संस्कृत की विरासत संभालनी चाहिए थी।

प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में से कौन पत्रकारीय मूल्यों को बेहतर तरीके से निभा पा रहा है?

प्रिंट मीडिया इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से बेहतर है। प्रतिस्पर्धा की होड़ में कभी-कभी चैनल देखकर ऐसा लगता है कि वह जबरदस्ती बोल रहे हैं, हालाकि समाचार चैनलों पर अनेक परिचर्चाओं का स्तर अच्छा होता है।

मीडिया के क्षेत्र में आने वाले नवागन्तुकों को क्या संदेश देना चाहेंगे?

पत्रकारिता को पेशा न मानकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए। पत्रकारिता का अर्थ समाजसेवा है। पत्रकार को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभानी चाहिए।

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